रत्नसंघ

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नाम: पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा.

माता का नाम: स्व. श्रीमती कानूबाइ्रजी

जन्म स्थान: रिंया सेठों की

देवलोक तिथि: विक्रमसंवत् 1840ज्येष्ठकृष्णा षष्ठी

पिता का नाम: स्व. श्री लादूरामजी चंगेरिया

दीक्षा का स्थान: रिंया

दीक्षा का स्थान: रिंया

परम प्रतापी कीर्ति-निस्पृह क्रियोद्धारक आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का जन्म कुड़ ग्राम में सरावगी परिवार में हुआ। माता हीरादेवीजी ने स्वप्न में जलते हुए दीप को अपने मुँह में प्रवेश करते देखा तो पिताश्री लालचन्द्रजी ने गुण निष्पन्न नाम “रत्नचन्द्र” रखा। कुड़ जैसे छोटे से गाँव में जन्म लेने वाले प्रज्ञा व प्रतिभा सम्पन्न बालक को नागौर निवासी सेठ गंगारामजी ने वि.स. 1840 में दत्तक-पुत्र के रूप में गोद ले लिया। वि.स. 1847 में ज्ञान-क्रिया सम्पन्न आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा.. आदि ठाणा नागौर पधारे तो शुद्ध अन्तःकरण के धनी रत्नचन्द्रजी के मन में वैराग्यमय उपदेश श्रवण कर विरक्त भावना जागृत हुई। वैराग्यवान रत्नचन्द्रजी ने दीक्षा की ठान ली। माता की आज्ञा नहीं थी, फिर भी वि.स. 1848 की वैशाख शुल्का पंचमी को मण्डोर की नागादड़ी के पास दीक्षा ग्रहण कर नवदीक्षित मुनि को “चिन्तामणि रत्न” मिलने की अपार खुशी हुई।
नवदीक्षित मुनि का मेवाड़ में तीन वर्ष विचरण रहा। बुद्धि की तीव्रता और स्मरण शक्ति की प्रखरता से उन्होंने व्याकरण ज्ञान के साथ आगम-साहत्य का अध्ययन करके विद्वत्ता का वरण किया। पाली चातुर्मास में माता को अपने पुत्र का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो राजा से बिना आज्ञा दीक्षित हुए पुत्र को पुनः वापस लाने हेतु प्रार्थना की। राज्य अधिकारियों को ही नहीं, स्वयं मातुश्री को प्रतिबोधित कर मुनिश्री ने अपने सारगर्भित वक्तत्व्य में संयम जीवन की महत्ता बताई तो माता को गलती का अहसास तो हुआ ही, नागौर चातुर्मास करने की पुरजोर विनति भी रखी।
पूज्य आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा. के स्वर्गवास पश्चात् पूज्य-पद के लिए विचार हुआ। सम्प्रदाय के प्रबुद्धजनों में दो नामों पर विचार हुआ। पूज्य श्री दुर्गादासजी म.सा. और पूज्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा.। स्वयं रत्नचन्द्रजी म.सा. अनुभवी और वयोवृद्ध श्री दुर्गादासजी म.सा. को पूज्य-पद स्वीकार करने का पुनः पुनः आग्रह कर रहे थे तो पूज्य श्री दुर्गादासजी म.सा. की भावना सामने आ रही थी कि पूज्य-पद के लिए प्रतिभा सम्पन्न और शासन दीपाने में सक्षम रत्नचन्द्रजी महाराज पूज्य-पद संभाले। वे एक-दूसरे को पूज्य कहते पर पद ग्रहण करने से परहेज करते रहे। चोबीस वर्ष तक दोनों महापुरूषों में से किसी ने आचार्य पद ग्रहण नहीं किया। उदारता के साथ गुण ग्राहकता का ऐसा आदर्श अन्यत्र देखने-सुनने को नहीं मिला।
स्थविर श्री दुर्गादासजी म.सा. का 76 वर्ष की आयु में वि.स. 1882 के जोधपुर चातुर्मास में अष्ट प्रहर के चौविहार संथारे के साथ स्वर्गगमन हुआ। चतुविध संघ ने वि.स. 1882 की मार्गशीर्ष शुकला त्रयोदशी को आचार्य-पद प्रदान किया, शासन प्रभावना में कीर्तिमान कायम करने वाले, क्रियोद्धारक, कीर्ति-निस्पृह परम प्रतापी पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का 18 वर्ष तक का शासनकाल का ही प्रभाव है कि कुशलवंश परम्परा रत्नसंघ के नाम से विख्यात हुई। आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का शासन 1902 की ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी तक रहा।

नाम: पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा.

माता का नाम: स्व. श्रीमती हीरादेवीजी

पिता का नाम: स्व. श्री लालचन्द्रजी

जन्म स्थान: कुड़ग्राम(नागौर)

देवलोक तिथि: विक्रमसंवत 1902,ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी

दीक्षा का स्थान: मण्डोर (जोधपुर)

देवलोक स्थान: जोधपुर

परम प्रतापी कीर्ति-निस्पृह क्रियोद्धारक आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का जन्म कुड़ ग्राम में सरावगी परिवार में हुआ। माता हीरादेवीजी ने स्वप्न में जलते हुए दीप को अपने मुँह में प्रवेश करते देखा तो पिताश्री लालचन्द्रजी ने गुण निष्पन्न नाम “रत्नचन्द्र” रखा। कुड़ जैसे छोटे से गाँव में जन्म लेने वाले प्रज्ञा व प्रतिभा सम्पन्न बालक को नागौर निवासी सेठ गंगारामजी ने वि.स. 1840 में दत्तक-पुत्र के रूप में गोद ले लिया। वि.स. 1847 में ज्ञान-क्रिया सम्पन्न आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा.. आदि ठाणा नागौर पधारे तो शुद्ध अन्तःकरण के धनी रत्नचन्द्रजी के मन में वैराग्यमय उपदेश श्रवण कर विरक्त भावना जागृत हुई। वैराग्यवान रत्नचन्द्रजी ने दीक्षा की ठान ली। माता की आज्ञा नहीं थी, फिर भी वि.स. 1848 की वैशाख शुल्का पंचमी को मण्डोर की नागादड़ी के पास दीक्षा ग्रहण कर नवदीक्षित मुनि को “चिन्तामणि रत्न” मिलने की अपार खुशी हुई।
नवदीक्षित मुनि का मेवाड़ में तीन वर्ष विचरण रहा। बुद्धि की तीव्रता और स्मरण शक्ति की प्रखरता से उन्होंने व्याकरण ज्ञान के साथ आगम-साहत्य का अध्ययन करके विद्वत्ता का वरण किया। पाली चातुर्मास में माता को अपने पुत्र का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो राजा से बिना आज्ञा दीक्षित हुए पुत्र को पुनः वापस लाने हेतु प्रार्थना की। राज्य अधिकारियों को ही नहीं, स्वयं मातुश्री को प्रतिबोधित कर मुनिश्री ने अपने सारगर्भित वक्तत्व्य में संयम जीवन की महत्ता बताई तो माता को गलती का अहसास तो हुआ ही, नागौर चातुर्मास करने की पुरजोर विनति भी रखी।
पूज्य आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा. के स्वर्गवास पश्चात् पूज्य-पद के लिए विचार हुआ। सम्प्रदाय के प्रबुद्धजनों में दो नामों पर विचार हुआ। पूज्य श्री दुर्गादासजी म.सा. और पूज्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा.। स्वयं रत्नचन्द्रजी म.सा. अनुभवी और वयोवृद्ध श्री दुर्गादासजी म.सा. को पूज्य-पद स्वीकार करने का पुनः पुनः आग्रह कर रहे थे तो पूज्य श्री दुर्गादासजी म.सा. की भावना सामने आ रही थी कि पूज्य-पद के लिए प्रतिभा सम्पन्न और शासन दीपाने में सक्षम रत्नचन्द्रजी महाराज पूज्य-पद संभाले। वे एक-दूसरे को पूज्य कहते पर पद ग्रहण करने से परहेज करते रहे। चोबीस वर्ष तक दोनों महापुरूषों में से किसी ने आचार्य पद ग्रहण नहीं किया। उदारता के साथ गुण ग्राहकता का ऐसा आदर्श अन्यत्र देखने-सुनने को नहीं मिला।
स्थविर श्री दुर्गादासजी म.सा. का 76 वर्ष की आयु में वि.स. 1882 के जोधपुर चातुर्मास में अष्ट प्रहर के चौविहार संथारे के साथ स्वर्गगमन हुआ। चतुविध संघ ने वि.स. 1882 की मार्गशीर्ष शुकला त्रयोदशी को आचार्य-पद प्रदान किया, शासन प्रभावना में कीर्तिमान कायम करने वाले, क्रियोद्धारक, कीर्ति-निस्पृह परम प्रतापी पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का 18 वर्ष तक का शासनकाल का ही प्रभाव है कि कुशलवंश परम्परा रत्नसंघ के नाम से विख्यात हुई। आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का शासन 1902 की ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी तक रहा।