रत्नसंघ

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नाम: पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा.

माता का नाम: स्व. श्रीमती कानूबाइ्रजी

जन्म स्थान: रिंया सेठों की

देवलोक तिथि: विक्रमसंवत् 1840ज्येष्ठकृष्णा षष्ठी

पिता का नाम: स्व. श्री लादूरामजी चंगेरिया

दीक्षा का स्थान: रिंया

दीक्षा का स्थान: रिंया

जीवन निर्माण के शिल्पकार, दूरदर्शी धीर-वीर-गम्भीर पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. कुशलवंश परम्परा के षष्ठ पट्टधर हुए। उनका जन्म जोधपुर में वि.स. 1914 की कार्तिक शुक्ला पंचमी जिसे ज्ञान पंचमी, सौभाग्य पंचमी, श्रुत पंचमी जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता है, आपका जन्म सुश्रावक श्री भगवानदासजी छाजेड़ के घर-आँगन में माता पार्वतीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक शोभाचन्द्र बाल सुलभ चेष्टाओं से दूर रहकर शान्त व एकान्त स्थान पर चिन्तन-मनन में रत रहने लगे। पिताश्री ने 10 वर्ष की लघुवय में बालक को काम-धंधे में लगा दिया। पिताश्री की सोच थी कि धन-प्राप्ति के लालच में संसार के प्रति उदासीनता का भाव तिरोहित हो जाएगा, किन्तु परम प्रतापी आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के वैराग्यपूर्ण उपदेश सुनकर बालक शोभाचन्द्र आत्मिक गुणों की शोभा का पूर्ण चन्द्र बनने के लिए तत्पर हो गए। दृढ़ संकल्पी को अव्रत में रहना पीड़ादायक लगता है। बालक की पुनः पुनः दीक्षा की अनुमति को पिताश्री नकार नहीं सके। पारखी गुरु ने बालक शोभा की दृढ़ वैराग्य भावना का पहले से अंकन कर लिया था अतः वि.स. 1927 माघ शुक्ला पंचमी को जयपुर में पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के मुखारविन्द से उनकी दीक्षा सम्पन्न हुई।
पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. यद्यपि आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के सुशिष्य थे परन्तु गुरुभ्राता पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. के सहयोग से उनका ज्ञान-ध्यान पुष्ट हुआ। अपने गुरुभ्राता की नैत्र-ज्योति की मन्दता हो जाने के कारण से चाहे शास्त्रवाचन हो या व्याख्यान हो अथवा सेवा-कार्य हो, सब कार्य समर्पित भाव से पूर्ण करते थे, जिससे गुरुभ्राता को पूर्ण संतोष रहा। वि.स. 1972 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को पूज्य आचार्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् उस महापुरूष ने मारवाड़ की ओर विहार किया।
पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. की सेवा में 1927 से 1972 तक रहने वाले चरितनायक ने मात्र 11 स्वतन्त्र चातुर्मास किए। स्वामीजी श्री चन्दनमलजी म.सा. की सहमति से वि.स. 1972 की फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को अजमेर में चतुर्विध संघ ने चादर महोत्सव के माध्यम से आपश्री को आचार्य-पद प्रदान किया। जोधपुर में पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्दजी म.सा. का प्रभाव जैन समाज पर तो था ही, अन्य मतावलम्बियों पर भी उनका व्यापक प्रभाव रहा। जोधपुर के मुसद्दी ही नहीं, अनेक जज-वकील, डॉक्टर-इंजीनियर और राजकीय सेवा में कार्यरत बन्धु, दर्शन-वन्दन करने का लाभ लेते।
अजमेर में वि.स. 1977 की माघ शुक्ला द्वितीया को जिन चार मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ हुई उनमें पीपाड़ निवासी लघुवय के विरक्त श्री हस्तीमलजी बोहरा ने अपनी मातुश्री रूपादेवीजी के साथ पावन प्रव्रज्या अंगीकृत की, जीवन-निर्माण के शिल्पकार आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने अपने सुशिष्य हस्ती मुनि को मात्र 15 वर्ष की अवस्था वाले संतरत्न को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दूरदर्शिता का परिचय दिया, वह अपने-आपमें अनूठा कीर्तिमान है।
पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. सरलता, सेवाभाविता, विनयशीलता, आगमज्ञता, वत्सलता जैसे गुणों से विभूषित थे तो व्यक्ति-व्यक्ति को परखने में उनकी कुशलता बेजोड़ थी। आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. का शासनकाल 1973-1983 तक केवल मात्र 11 वर्ष रहा परन्तु उस महापुरूष के 56 यशस्वी चातुर्मास इस परम्परा के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेंगे। आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. का जोधपुर में वि.स. 1983 की श्रावण कृष्णा अमावस्या को संथारा एवं समाधिपूर्वक मरण हुआ।

नाम: पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा

माता का नाम: स्व. श्रीमती पार्वतीदेवीजी

पिता का नाम: स्व. श्रीभगवानदासजी छाजेड़ मेहता

जन्म स्थान: जोधपुर

देवलोक तिथि: विक्रम संवत 1983, श्रावण कृष्णा अमावस्या

दीक्षा का स्थान: जयपुर

देवलोक स्थान: जोधपुर

जीवन निर्माण के शिल्पकार, दूरदर्शी धीर-वीर-गम्भीर पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. कुशलवंश परम्परा के षष्ठ पट्टधर हुए। उनका जन्म जोधपुर में वि.स. 1914 की कार्तिक शुक्ला पंचमी जिसे ज्ञान पंचमी, सौभाग्य पंचमी, श्रुत पंचमी जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता है, आपका जन्म सुश्रावक श्री भगवानदासजी छाजेड़ के घर-आँगन में माता पार्वतीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक शोभाचन्द्र बाल सुलभ चेष्टाओं से दूर रहकर शान्त व एकान्त स्थान पर चिन्तन-मनन में रत रहने लगे। पिताश्री ने 10 वर्ष की लघुवय में बालक को काम-धंधे में लगा दिया। पिताश्री की सोच थी कि धन-प्राप्ति के लालच में संसार के प्रति उदासीनता का भाव तिरोहित हो जाएगा, किन्तु परम प्रतापी आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के वैराग्यपूर्ण उपदेश सुनकर बालक शोभाचन्द्र आत्मिक गुणों की शोभा का पूर्ण चन्द्र बनने के लिए तत्पर हो गए। दृढ़ संकल्पी को अव्रत में रहना पीड़ादायक लगता है। बालक की पुनः पुनः दीक्षा की अनुमति को पिताश्री नकार नहीं सके। पारखी गुरु ने बालक शोभा की दृढ़ वैराग्य भावना का पहले से अंकन कर लिया था अतः वि.स. 1927 माघ शुक्ला पंचमी को जयपुर में पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के मुखारविन्द से उनकी दीक्षा सम्पन्न हुई।
पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. यद्यपि आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के सुशिष्य थे परन्तु गुरुभ्राता पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. के सहयोग से उनका ज्ञान-ध्यान पुष्ट हुआ। अपने गुरुभ्राता की नैत्र-ज्योति की मन्दता हो जाने के कारण से चाहे शास्त्रवाचन हो या व्याख्यान हो अथवा सेवा-कार्य हो, सब कार्य समर्पित भाव से पूर्ण करते थे, जिससे गुरुभ्राता को पूर्ण संतोष रहा। वि.स. 1972 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को पूज्य आचार्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् उस महापुरूष ने मारवाड़ की ओर विहार किया।
पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. की सेवा में 1927 से 1972 तक रहने वाले चरितनायक ने मात्र 11 स्वतन्त्र चातुर्मास किए। स्वामीजी श्री चन्दनमलजी म.सा. की सहमति से वि.स. 1972 की फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को अजमेर में चतुर्विध संघ ने चादर महोत्सव के माध्यम से आपश्री को आचार्य-पद प्रदान किया। जोधपुर में पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्दजी म.सा. का प्रभाव जैन समाज पर तो था ही, अन्य मतावलम्बियों पर भी उनका व्यापक प्रभाव रहा। जोधपुर के मुसद्दी ही नहीं, अनेक जज-वकील, डॉक्टर-इंजीनियर और राजकीय सेवा में कार्यरत बन्धु, दर्शन-वन्दन करने का लाभ लेते।
अजमेर में वि.स. 1977 की माघ शुक्ला द्वितीया को जिन चार मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ हुई उनमें पीपाड़ निवासी लघुवय के विरक्त श्री हस्तीमलजी बोहरा ने अपनी मातुश्री रूपादेवीजी के साथ पावन प्रव्रज्या अंगीकृत की, जीवन-निर्माण के शिल्पकार आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने अपने सुशिष्य हस्ती मुनि को मात्र 15 वर्ष की अवस्था वाले संतरत्न को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दूरदर्शिता का परिचय दिया, वह अपने-आपमें अनूठा कीर्तिमान है।
पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. सरलता, सेवाभाविता, विनयशीलता, आगमज्ञता, वत्सलता जैसे गुणों से विभूषित थे तो व्यक्ति-व्यक्ति को परखने में उनकी कुशलता बेजोड़ थी। आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. का शासनकाल 1973-1983 तक केवल मात्र 11 वर्ष रहा परन्तु उस महापुरूष के 56 यशस्वी चातुर्मास इस परम्परा के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेंगे। आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. का जोधपुर में वि.स. 1983 की श्रावण कृष्णा अमावस्या को संथारा एवं समाधिपूर्वक मरण हुआ।