रत्नसंघ

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नाम: पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा.

माता का नाम: स्व. श्रीमती कानूबाइ्रजी

जन्म स्थान: रिंया सेठों की

देवलोक तिथि: विक्रमसंवत् 1840ज्येष्ठकृष्णा षष्ठी

पिता का नाम: स्व. श्री लादूरामजी चंगेरिया

दीक्षा का स्थान: रिंया

दीक्षा का स्थान: रिंया

कुशलवंश परम्परा के पंचम नायक पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. इस युग के श्रुत केवली, साम्प्रदायिक सहिष्णुता के सन्देशवाहक, वात्सल्य-मूर्ति शासन प्रभावक महापुरूश रहे। जोधपुर जिलान्तर्गत फलौदी के ओेसवंशीय श्रावकरत्न श्री प्रतापमलजी पुंगलिया के घर-आँगन में माता रम्भादेवीजी की रत्नकुक्षि से वि.स. 1897 की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को जन्मे बालक का नाम गुण सम्पन्न आकृति को ध्यान में रखकर “विनयचन्द्र” रखा गया। माता-पिता के स्वर्गवास पश्चात् बहन-बहनोई के सहयोग से पाली में व्यापार शुरू किया। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. की वैराग्यमय वाणी श्रवण करके आपके हृदय में संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का बोध हुआ। वि.स. 1912 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के मुखारवन्द से अजमेर में श्री विनयचन्दजी और छोटे भाई श्री कस्तूरचन्दजी की दीक्षा हुई। थोड़े समय में धाराप्रवाह प्रवचन की प्रभावना से नवदीक्षित मुनिश्री की विनयशीलता, व्यवहार कुशलता और आगमज्ञता रेखांकित हुई। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के स्वर्गगमन के पश्चात् वि.स. 1937 की ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी को अजेर में चतुर्विध संघ ने पूज्य-पद प्रदान किया। आगम-मर्मज्ञ मुनिश्री की धारणा शक्ति गजब की थी। स्मरण-शक्ति के कारण वर्षों पुरानी बातें उन्हें याद रहती थी। सतत स्वाध्याय के कारण आपकी प्रज्ञा इतनी निर्मल बन गई कि चर्म-चक्षुओं की मन्दता में कमी कोई संत गाथा इधर की उधर बोल जाता तो तुरन्त रोक कर यथोचित समाधान फरमाते। सबके प्रति मैत्री और उदारता की भावना के कारण श्वेताम्बर, दिगम्बर, तेरापंथी तक ही नहीं शैव-वैष्णव मतावलम्बी तक भी जिज्ञासु भाव से आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होते। पूज्य श्री का जयपुर स्थिरवास रहा। वृद्धावस्था में यदा-कदा अस्वस्थता रहती परन्तु सामान्यतः शरीर में समाधि बनी रही। वि.स. 1972 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को दिन में 10 बजे के आसपास 75 वर्ष की अवस्था में पूज्य श्री ने समाधि पूर्वक नश्वर देह का त्याग किया।

नाम: पूज्य आचार्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा.

जन्म स्थान: फलौदी

दीक्षा का स्थान: अजमेर

कुशलवंश परम्परा के पंचम नायक पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. इस युग के श्रुत केवली, साम्प्रदायिक सहिष्णुता के सन्देशवाहक, वात्सल्य-मूर्ति शासन प्रभावक महापुरूश रहे। जोधपुर जिलान्तर्गत फलौदी के ओेसवंशीय श्रावकरत्न श्री प्रतापमलजी पुंगलिया के घर-आँगन में माता रम्भादेवीजी की रत्नकुक्षि से वि.स. 1897 की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को जन्मे बालक का नाम गुण सम्पन्न आकृति को ध्यान में रखकर “विनयचन्द्र” रखा गया। माता-पिता के स्वर्गवास पश्चात् बहन-बहनोई के सहयोग से पाली में व्यापार शुरू किया। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. की वैराग्यमय वाणी श्रवण करके आपके हृदय में संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का बोध हुआ। वि.स. 1912 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के मुखारवन्द से अजमेर में श्री विनयचन्दजी और छोटे भाई श्री कस्तूरचन्दजी की दीक्षा हुई। थोड़े समय में धाराप्रवाह प्रवचन की प्रभावना से नवदीक्षित मुनिश्री की विनयशीलता, व्यवहार कुशलता और आगमज्ञता रेखांकित हुई। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के स्वर्गगमन के पश्चात् वि.स. 1937 की ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी को अजेर में चतुर्विध संघ ने पूज्य-पद प्रदान किया। आगम-मर्मज्ञ मुनिश्री की धारणा शक्ति गजब की थी। स्मरण-शक्ति के कारण वर्षों पुरानी बातें उन्हें याद रहती थी। सतत स्वाध्याय के कारण आपकी प्रज्ञा इतनी निर्मल बन गई कि चर्म-चक्षुओं की मन्दता में कमी कोई संत गाथा इधर की उधर बोल जाता तो तुरन्त रोक कर यथोचित समाधान फरमाते। सबके प्रति मैत्री और उदारता की भावना के कारण श्वेताम्बर, दिगम्बर, तेरापंथी तक ही नहीं शैव-वैष्णव मतावलम्बी तक भी जिज्ञासु भाव से आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होते। पूज्य श्री का जयपुर स्थिरवास रहा। वृद्धावस्था में यदा-कदा अस्वस्थता रहती परन्तु सामान्यतः शरीर में समाधि बनी रही। वि.स. 1972 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को दिन में 10 बजे के आसपास 75 वर्ष की अवस्था में पूज्य श्री ने समाधि पूर्वक नश्वर देह का त्याग किया।