रत्नसंघ

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नाम: पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा.

माता का नाम: स्व. श्रीमती कानूबाइ्रजी

जन्म स्थान: रिंया सेठों की

देवलोक तिथि: विक्रमसंवत् 1840ज्येष्ठकृष्णा षष्ठी

पिता का नाम: स्व. श्री लादूरामजी चंगेरिया

दीक्षा का स्थान: रिंया

दीक्षा का स्थान: रिंया

इस युग के यशस्वी-मनस्वी-तपस्वी, प्रतिपल स्मरणीय परमाराध्य आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. का जन्म जोधपुर जिलान्तर्गत पुण्यधरा पीपाड़शहर में वि.स. 1967 की पौष शुक्ला चतुर्दशी को दृढ़धर्मी सुश्रावक श्री केवलचन्दजी बोहरा के घर-आँगन में माता रूपादेवीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक हस्ती जब अपनी माता के गर्भ में थे तब पिता श्री केवलचन्दजी बोहरा प्लेग रोग की चपेट में आकर चल बसे। मातुश्री श्री रूपादेवीजी संसार की क्षणभंगुरता और शरीर की अनित्यता से परिचित थी परन्तु बालक की परवरिश के कर्तव्यबोध के कारण श्राविकारत्न को दीक्षित होने से रूकना पड़ा।
माता के सद्-संस्कारों से परिपुष्ट बालक हस्ती के जीवन में सरलता, सहजता, सहिष्णुता जैसे विशिष्ट सद्गुण तो थे ही, संत-सतीवृन्द के सान्निध्य से विनय, विवेक, विनम्रता के साथ सेवाभावना के सद्गुण परिपुष्ट होने लगे। कुशाग्र बुद्धि के धनी बालक हस्ती में पौशाल में पढ़ते हुए करूणा, निडरता और न्यायप्रियता जैस सद्गुण विकसित हुए। माता रूपादेवी को लगा कि बालक कुछ समझदार हो गया है, माता ने दीक्षा लेने की भावना बालक हस्ती के समक्ष प्रकट की। माँ की बात सुनकर आत्मबल के धनी बालक हस्ती ने प्रत्युत्तर में कहा-आप ठीक सोच रही हैं। आप दीक्षा लें, मैं भी आपके साथ दीक्षित होऊंगा।
दूरदर्शी आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने वि.स. 1977 की माघ शुक्ला द्वितीया को अजमेर में जिन चार मुमुक्षुजनों को प्रव्रजित किया उनमें माता रूपादेवीजी और दस वर्षीय पुत्र हस्तीमलजी की दीक्षा अपने-आपमें अनुपम कीर्तिमान ही तो था।
नवदीक्षित बालमुनि प्रज्ञा व प्रतिभा से सम्पन्न तो थे ही, श्रमण-जीवन के अभ्यास के साथ अध्ययन में उनकी तल्लीनता प्रमाद परिहार्य का अनुपम आदर्श बन गया। इधर-उधर देखना-झांकना बालमुनि को कभी इष्ट नहीं रहा। अध्ययन के साथ गुरु-सेवा में सजग मुनिश्री की योग्यता, क्षमता, पात्रता, जान-समझकर जीवन निर्माण के शिल्पकार दूरदर्शी धर्माचार्य-धर्मगुरु पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने मात्र 15 वर्ष की लघुवय मे अपने सुशिष्य हस्ती को भावी संघनायक के रूप में मनोनीत कर दिया वह भी अपने-आपमें एक कीर्तिमान है। आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् चतुर्विध संघ ने लगभग 20 वर्ष की अवस्था में जोधपुर में चादर महोत्सव का आयोजन कर वि.स. 1887 की वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षया तृतीया) को आचार्य-पद पर सुशोभित किया, वह भी कीर्तिमान है।
ज्ञान-क्रिया के बेजोड़ संगम आचार्य श्री हस्ती आगम मर्मज्ञ, सिद्धान्तप्रिय, परम्परा के पोषक, सबके साथ मैत्री और संघ-ऐक्य के रक्षक तथा धर्म-संघ के हितचिन्तक महापुरूष रहे। विद्वत्ता में मात्र 23 वर्ष की वय मे उस दिव्य-दिवाकर ने कैकड़ी में शास्त्रार्थ कर विजयश्री का वरण किया परिणास्वरूप सकल जैन समाज में आप की यश-कीर्ति छा गई। कॉन्फ्रेंस की अवधारणा को साकार करने में आप श्री का विशेष योगदान रहा। अजमेर, सादड़ी, सोजत, भीनासर सम्मेलनों में गुरु हस्ती की भूमिका व भागीदारी का ही नहीं, स्थानकवासी परम्परा को प्रायः सभी मूर्धन्य संतों के दिल-दिमाग में पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. की सजगता, गंभीरता, विद्वता और सर्वप्रियता जैस गुण न केवल रेखांकित हुए अपितु ज्योतिर्धर जवाहराचार्य, पंजाबकेसरी युवाचार्य श्री काशीरामजी म.सा. तक का अभिमत रहा कि जब तक गुरु हस्ती किसी प्रस्ताव पर विचार-चिन्तन न दे तब तक वह प्रस्ताव मान्य नहीं होगा। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निर्मलता के साथ समाचारी का सम्यक् पालन करने वाले गुरु हस्ती को श्रमण संघ में सहमंत्री व उपाध्याय जैसे विशिष्ट पद तो प्रदान किए गए ही, पक्खी, प्रतिक्रमण, संवत्सरी, बालदीक्षा, प्रायश्चित्त, सचित्ताचित्त विचार जैसे विषयों पर गुरु हस्ती की छाप बनी रही। उन्हें अन्यान्य समितियों के साथ आगमोद्धारक समिति का सदस्य बनाया गया। तिथि निर्धारण समिति, शिक्षा-दीक्षा एवं विचरण-विहार में उस महापुरूष का योगदान अनूठा रहा।
दूरदर्शी आचार्य श्री हस्ती ने श्रमण संघ में सम्मिलित होने के पूर्व यह स्पष्ट कर दिया था कि जब तक संघ-ऐक्य और साधु-समाचारी का सम्यक् पालन होता रहेगा, श्रमण संघ में मेरी प्रतिबद्धता रहेगी। जब आपको यह लगा कि संयम-साधना में बाधा उपस्थित हो रही है तो श्रमण संघ से पृथक् होने का निर्णय कर लिया। सिद्धान्तप्रिय गुरु हस्ती को श्रमण संघ छोड़ने में असीम आत्मबल का परिचय देना पड़ा।
आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने 1990 मे पूज्य श्री आत्मारामजी म.सा. के साथ जोधपुर में चातुर्मास किया। परस्पर प्रेम-मैत्री- सहयोग की दृष्टि से वह चातुर्मास सफल रहा। जोधपुर में ही 2010 में छः प्रमुख संतों का ऐतिहासिक चातुर्मास गुरु हस्ती की सूझबूझ, उदारता, सरलता से सफल रहा। पूज्य श्री गणेशीलालजी म.सा., पूज्य श्री आनन्दऋषिजी म.सा., कवि श्री अमरमुनिजी म.सा., व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलालजी म.सा., पं. रत्न श्री समर्थमलजी म.सा., स्वामीजी श्री पूरणमलजी म.सा. जैसे विशिष्ट संत- मुनिराजों के साथ आप श्री का सिंहपोल जोधपुर का चातुर्मास अनूठा रहा।
आचार्य श्री हस्ती का जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी म.सा., पूज्य प्रवर्तक श्री पन्नालालजी म.सा., आचार्य श्री गणेशीलालजी म.सा., आचार्य श्री आत्मारामजी म.सा., आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म.सा., आचार्य श्री नानालालजी म.सा., उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.सा., आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म.सा., उपाध्याय कवि श्री अमरमुनिजी म.सा., उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी म.सा., मरूधर केसरी श्री मिश्रीमलजी म.सा., युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म.सा., आचार्य श्री जीतमलजी म.सा., बहुश्रुत श्री समर्थमलजी म.सा. सहित स्थानकवासी परम्परा के संतरत्नों के साथ तेरापंथी, मन्दिरमार्गी, गुजराती आदि-आदि परम्पराओं के प्रति मधुर सम्बन्ध बनाए रखना अपने आप में बहुत बड़ी विशेषता थीं।
आचार्य श्री हस्ती ने साहित्य-साधना में जैन धर्म का मौलिक इतिहास रचकर अनूठा आदर्श उपस्थित किया। गुरु हस्ती का व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व बड़ा प्रभावशाली रहा। उस महापुरूष ने कई स्थानों पर पशुबलि बन्द करवाई। सिंवाची पट्टी में 144 ग्रामों का मनमुटाव दूर कर प्रेम की गंगा बहाई, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के साथ जीवन पर्यन्त सामायिक-स्वाध्याय का देश भर में शंखनाद किया। 71 वर्ष तक निर्मल संयम-साधना का परिपालन करने वाले महापुरूष ने 61 वर्ष तक संघ का कुशलता पूर्वक संचालन किया और तेरह दिवसीय तप-संथारे के साथ वि.स. 2048 की प्रथम वैशाख शुक्ला अष्टमी को समत्वभावों के साथ समाधि-मरण का वरण कर मृत्यु को महा-महोत्सव बनाया, संलेखना-संथारे का ऐसा आदर्श 200 वर्षों के इतिहास में किसी आचार्य को प्राप्त नहीं हुआ।

नाम: पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा.

माता का नाम: स्व. श्रीमती रूपादेवीजी बोहरा

पिता का नाम: स्व. श्री केवलचन्दजी बोहरा

जन्म स्थान: पीपाड़शहर

देवलोक तिथि: विक्रम संवत 2048, वैशाख शुक्ला अष्टमी

दीक्षा का स्थान: अजमेर

देवलोक स्थान: निमाज (जिला-पाली)

इस युग के यशस्वी-मनस्वी-तपस्वी, प्रतिपल स्मरणीय परमाराध्य आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. का जन्म जोधपुर जिलान्तर्गत पुण्यधरा पीपाड़शहर में वि.स. 1967 की पौष शुक्ला चतुर्दशी को दृढ़धर्मी सुश्रावक श्री केवलचन्दजी बोहरा के घर-आँगन में माता रूपादेवीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक हस्ती जब अपनी माता के गर्भ में थे तब पिता श्री केवलचन्दजी बोहरा प्लेग रोग की चपेट में आकर चल बसे। मातुश्री श्री रूपादेवीजी संसार की क्षणभंगुरता और शरीर की अनित्यता से परिचित थी परन्तु बालक की परवरिश के कर्तव्यबोध के कारण श्राविकारत्न को दीक्षित होने से रूकना पड़ा।
माता के सद्-संस्कारों से परिपुष्ट बालक हस्ती के जीवन में सरलता, सहजता, सहिष्णुता जैसे विशिष्ट सद्गुण तो थे ही, संत-सतीवृन्द के सान्निध्य से विनय, विवेक, विनम्रता के साथ सेवाभावना के सद्गुण परिपुष्ट होने लगे। कुशाग्र बुद्धि के धनी बालक हस्ती में पौशाल में पढ़ते हुए करूणा, निडरता और न्यायप्रियता जैस सद्गुण विकसित हुए। माता रूपादेवी को लगा कि बालक कुछ समझदार हो गया है, माता ने दीक्षा लेने की भावना बालक हस्ती के समक्ष प्रकट की। माँ की बात सुनकर आत्मबल के धनी बालक हस्ती ने प्रत्युत्तर में कहा-आप ठीक सोच रही हैं। आप दीक्षा लें, मैं भी आपके साथ दीक्षित होऊंगा।
दूरदर्शी आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने वि.स. 1977 की माघ शुक्ला द्वितीया को अजमेर में जिन चार मुमुक्षुजनों को प्रव्रजित किया उनमें माता रूपादेवीजी और दस वर्षीय पुत्र हस्तीमलजी की दीक्षा अपने-आपमें अनुपम कीर्तिमान ही तो था।
नवदीक्षित बालमुनि प्रज्ञा व प्रतिभा से सम्पन्न तो थे ही, श्रमण-जीवन के अभ्यास के साथ अध्ययन में उनकी तल्लीनता प्रमाद परिहार्य का अनुपम आदर्श बन गया। इधर-उधर देखना-झांकना बालमुनि को कभी इष्ट नहीं रहा। अध्ययन के साथ गुरु-सेवा में सजग मुनिश्री की योग्यता, क्षमता, पात्रता, जान-समझकर जीवन निर्माण के शिल्पकार दूरदर्शी धर्माचार्य-धर्मगुरु पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने मात्र 15 वर्ष की लघुवय मे अपने सुशिष्य हस्ती को भावी संघनायक के रूप में मनोनीत कर दिया वह भी अपने-आपमें एक कीर्तिमान है। आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् चतुर्विध संघ ने लगभग 20 वर्ष की अवस्था में जोधपुर में चादर महोत्सव का आयोजन कर वि.स. 1887 की वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षया तृतीया) को आचार्य-पद पर सुशोभित किया, वह भी कीर्तिमान है।
ज्ञान-क्रिया के बेजोड़ संगम आचार्य श्री हस्ती आगम मर्मज्ञ, सिद्धान्तप्रिय, परम्परा के पोषक, सबके साथ मैत्री और संघ-ऐक्य के रक्षक तथा धर्म-संघ के हितचिन्तक महापुरूष रहे। विद्वत्ता में मात्र 23 वर्ष की वय मे उस दिव्य-दिवाकर ने कैकड़ी में शास्त्रार्थ कर विजयश्री का वरण किया परिणास्वरूप सकल जैन समाज में आप की यश-कीर्ति छा गई। कॉन्फ्रेंस की अवधारणा को साकार करने में आप श्री का विशेष योगदान रहा। अजमेर, सादड़ी, सोजत, भीनासर सम्मेलनों में गुरु हस्ती की भूमिका व भागीदारी का ही नहीं, स्थानकवासी परम्परा को प्रायः सभी मूर्धन्य संतों के दिल-दिमाग में पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. की सजगता, गंभीरता, विद्वता और सर्वप्रियता जैस गुण न केवल रेखांकित हुए अपितु ज्योतिर्धर जवाहराचार्य, पंजाबकेसरी युवाचार्य श्री काशीरामजी म.सा. तक का अभिमत रहा कि जब तक गुरु हस्ती किसी प्रस्ताव पर विचार-चिन्तन न दे तब तक वह प्रस्ताव मान्य नहीं होगा। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निर्मलता के साथ समाचारी का सम्यक् पालन करने वाले गुरु हस्ती को श्रमण संघ में सहमंत्री व उपाध्याय जैसे विशिष्ट पद तो प्रदान किए गए ही, पक्खी, प्रतिक्रमण, संवत्सरी, बालदीक्षा, प्रायश्चित्त, सचित्ताचित्त विचार जैसे विषयों पर गुरु हस्ती की छाप बनी रही। उन्हें अन्यान्य समितियों के साथ आगमोद्धारक समिति का सदस्य बनाया गया। तिथि निर्धारण समिति, शिक्षा-दीक्षा एवं विचरण-विहार में उस महापुरूष का योगदान अनूठा रहा।
दूरदर्शी आचार्य श्री हस्ती ने श्रमण संघ में सम्मिलित होने के पूर्व यह स्पष्ट कर दिया था कि जब तक संघ-ऐक्य और साधु-समाचारी का सम्यक् पालन होता रहेगा, श्रमण संघ में मेरी प्रतिबद्धता रहेगी। जब आपको यह लगा कि संयम-साधना में बाधा उपस्थित हो रही है तो श्रमण संघ से पृथक् होने का निर्णय कर लिया। सिद्धान्तप्रिय गुरु हस्ती को श्रमण संघ छोड़ने में असीम आत्मबल का परिचय देना पड़ा।
आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने 1990 मे पूज्य श्री आत्मारामजी म.सा. के साथ जोधपुर में चातुर्मास किया। परस्पर प्रेम-मैत्री- सहयोग की दृष्टि से वह चातुर्मास सफल रहा। जोधपुर में ही 2010 में छः प्रमुख संतों का ऐतिहासिक चातुर्मास गुरु हस्ती की सूझबूझ, उदारता, सरलता से सफल रहा। पूज्य श्री गणेशीलालजी म.सा., पूज्य श्री आनन्दऋषिजी म.सा., कवि श्री अमरमुनिजी म.सा., व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलालजी म.सा., पं. रत्न श्री समर्थमलजी म.सा., स्वामीजी श्री पूरणमलजी म.सा. जैसे विशिष्ट संत- मुनिराजों के साथ आप श्री का सिंहपोल जोधपुर का चातुर्मास अनूठा रहा।
आचार्य श्री हस्ती का जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी म.सा., पूज्य प्रवर्तक श्री पन्नालालजी म.सा., आचार्य श्री गणेशीलालजी म.सा., आचार्य श्री आत्मारामजी म.सा., आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म.सा., आचार्य श्री नानालालजी म.सा., उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.सा., आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म.सा., उपाध्याय कवि श्री अमरमुनिजी म.सा., उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी म.सा., मरूधर केसरी श्री मिश्रीमलजी म.सा., युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म.सा., आचार्य श्री जीतमलजी म.सा., बहुश्रुत श्री समर्थमलजी म.सा. सहित स्थानकवासी परम्परा के संतरत्नों के साथ तेरापंथी, मन्दिरमार्गी, गुजराती आदि-आदि परम्पराओं के प्रति मधुर सम्बन्ध बनाए रखना अपने आप में बहुत बड़ी विशेषता थीं।
आचार्य श्री हस्ती ने साहित्य-साधना में जैन धर्म का मौलिक इतिहास रचकर अनूठा आदर्श उपस्थित किया। गुरु हस्ती का व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व बड़ा प्रभावशाली रहा। उस महापुरूष ने कई स्थानों पर पशुबलि बन्द करवाई। सिंवाची पट्टी में 144 ग्रामों का मनमुटाव दूर कर प्रेम की गंगा बहाई, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के साथ जीवन पर्यन्त सामायिक-स्वाध्याय का देश भर में शंखनाद किया। 71 वर्ष तक निर्मल संयम-साधना का परिपालन करने वाले महापुरूष ने 61 वर्ष तक संघ का कुशलता पूर्वक संचालन किया और तेरह दिवसीय तप-संथारे के साथ वि.स. 2048 की प्रथम वैशाख शुक्ला अष्टमी को समत्वभावों के साथ समाधि-मरण का वरण कर मृत्यु को महा-महोत्सव बनाया, संलेखना-संथारे का ऐसा आदर्श 200 वर्षों के इतिहास में किसी आचार्य को प्राप्त नहीं हुआ।