रत्नसंघ

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नाम: पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा.

माता का नाम: स्व. श्रीमती कानूबाइ्रजी

जन्म स्थान: रिंया सेठों की

देवलोक तिथि: विक्रमसंवत् 1840ज्येष्ठकृष्णा षष्ठी

पिता का नाम: स्व. श्री लादूरामजी चंगेरिया

दीक्षा का स्थान: रिंया

दीक्षा का स्थान: रिंया

अध्यात्मयोगी-युगमनीषी आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने अपने अन्तिम पाली चातुर्मास में प्रवचन सभा में कई बार जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए फरमाया कि मेरी ये दोनों भुजाएं मजबूत है। पं. रत्न श्री मानचन्द्रजी म.सा. व पं. रत्न श्री हीराचन््रदजी म.सा. आचार्य भगवन्त के आजू-बाजू विराजते थे। भगवन्त की भावना का प्रवचन-सभा में जनसमुदाय को भले ही हार्द समझ में नहीं आया किन्तु आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन पश्चात् श्रद्धाजंलि-सभा में भगवनत का स्व-लिखित पत्र का वाचन किया तो उसमें पं. रत्न श्री हीराचन्द्रजी म.सा. को आचार्य एवं पं. रत्न श्रभ् मानचन्द्रजी म.सा. को उपाध्याय पद प्रदान करने का उल्लेख श्रवण होते ही जन समुदाय ने हर्ष-हर्ष, जय-जय के जयनाद के साथ दोनों पण्डित प्रवरों की जय के गगनभेदी जयघोष कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। रत्नसंघ मे पहली बार उपाध्याय पद पर मनोनयन हुआ है इस कारण से जनभावना मे अच्छा उत्साह देखा गया। उपाध्यायप्रवर का वि.स. 1991 की माघ कृष्णा चतुर्थी को सूर्यनगरी के सुज्ञ श्रावकरत्न श्री अचलचन्दजी सेठिया के घर आंगन में दृढ़धर्मी सुश्राविका श्रीमती छोटाबाईजी की रत्नकुक्षि से जन्म हुआ। व्यावहारिक शिक्षण जोधपुर में हुआ और विद्यार्थी जीवन मे सरलता, सादगी, सहजता, सजगता, सहिष्णुता जैसे गुणानुरागी ने भोपालगढ़ में अध्यापक के रूप में सेवाएं दी। संकल्प-शक्ति के धनी श्री मानचन्द्रजी ने युवावस्था में संतोषवृत्ति के कारण अपने निमित्त से नए वस्त्र नहीं सिलवाने का मन-ही-मन नियम-सा कर लिया, भोजन में जो भी थाली में आ जाता दुबारा न लेते न मांगते। यौवनावस्था में घर-परिवार में विवाह विषयक चर्चा चलने लगी तो सांसारिक बन्धन में नहीं बंधने की भावना से आपने पं. रत्न श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा. से निवेदन किया कि मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत के प्रत्याख्यान करा दीजिए। पं. मुनि श्री ने मर्यादित समय के लिए नियम करवाया पर दृढ़ संकल्प के धनी ने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करने का मानस बना लिया। वि.स. 2020 की वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को जोधपुर में आचार्य श्री हस्ती के मुखारविन्द से मगन-मान की जोड़ी ने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की। नवदीक्षित संतरत्न ने आचार्य भगवन्त एवं नेश्राय गुरु पं. रत्न श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा. की चरण-सन्निधि में साध्वरचार के ज्ञान के साथ बोल-थोकड़ों और आगम शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान किया। सेवा और साधना के पर्याय उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म.सा. ने वि.स. 2034 से 2039 तक घोड़ों के चैक विराजित बाबाजी महाराज की अग्लानभाव से सेवा की उसकी प्रशंसा राजस्थान गौरव सेठ श्री मोहनमलजी चोरड़िया ने यह कहते की कि श्री मानमुनि चैथे आरे की बानगी है। उपाध्यायप्रवर ने वि.स. 2045 का चातुर्मास देश की राजधानी दिल्ली में किया। दिल्लीवासियों ने त्याग की साक्षात् मूर्ति द्वारा समाचारी पालन में दृढ़ता देखी तो उनहें लगा कि ये इतने दृढ़ संकल्पी हैं तो इनके गुरु कैसे हैं, दर्शन-वन्दन करने चाहिए। दिल्ली के श्रावकों ने सवाईमाधोपुर जाकर गुरु हस्ती के दर्शन क्या किए उन्हें तो मानों साक्षात् भगवान के दर्शन हो गए, ऐसा अनुभव हुआ। आचार्य भगवन्त के अन्तिम पाली चातुर्मास में दोनो पं. मुनियों ने भी गुरु आज्ञा से पाली चातुर्मास किया। पाली से निमाज की ओर विहार एवं निमाज पहुँचने पर आचार्य भगवन्त द्वारा संलेखना-संथारा एवं समाधिमरण में दोनों पण्डित प्रवरों की महनीय भूमिका रही। आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन पश्चात् आचार्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा. एवं उपाध्यायप्रवर श्री मानचंदजी म.सा. आदि ठाणा का प्रथम संयुक्त चातुर्मास जोधपुर हुआ। जोधपुर पश्चात् मदनगंज-किशनगढ़, जलगांव और धुले में दोनों महापुरूषों के संयुक्त वर्षावास हुए। परस्पर प्रेम-मैत्री सहयेाग केसाथ एकता-एकरूपता का जन-जन को सुखद अहसास संयुक्त चातुर्मासों की उपलब्धि कहें तो अतिशयोक्ति नहीं है। उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म.सा. आत्मार्थी संत हैं। धीर-वीर-गंभीर प्रकृति क धनी होने के साथ आपश्री प्रबल पुरूषार्थी भी हैं। वर्तमान में स्वास्थ्य में कमजोरी की वजह से विहार की स्थिति नहीं होने से संघनायक ने आपको जोधपुर विराजने का निर्देश किया है। उपाध्यायप्रवर जहाँ भी पधारते हैं वहाँ ज्ञान-ध्यान, त्याग-तप, साधना-आराधना और व्रत-प्रत्याख्यानों का ठाठ लग जाता है। सेवा और साधना के पर्याय उपाध्यायप्रवर का स्वास्थ्य समीचीन बना रहे, जन-जन की यही मुखरित होती रहती है।

नाम: उपाध्यायप्रवर श्री मानचन्द्रजी म.सा.

माता का नाम: स्व.श्रीमती छोटाबाईजी सेठिया

पिता का नाम: स्व. श्री अचलचन्दजी सेठिया

जन्म दिनांक: 23 Jan 1935

दीक्षा की तिथि: 6 May 1963

जन्म स्थान: जोधपुर (राज.)

दीक्षा का स्थान: सरदार स्कूल प्रांगण, जोधपुर

देवलोक तारीख़ और समय: 2020-01-01 18:30:00

देवलोक तिथि: पौष सुदी सप्तमी

देवलोक स्थान: Jodhpur

अध्यात्मयोगी-युगमनीषी आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने अपने अन्तिम पाली चातुर्मास में प्रवचन सभा में कई बार जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए फरमाया कि मेरी ये दोनों भुजाएं मजबूत है। पं. रत्न श्री मानचन्द्रजी म.सा. व पं. रत्न श्री हीराचन््रदजी म.सा. आचार्य भगवन्त के आजू-बाजू विराजते थे। भगवन्त की भावना का प्रवचन-सभा में जनसमुदाय को भले ही हार्द समझ में नहीं आया किन्तु आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन पश्चात् श्रद्धाजंलि-सभा में भगवनत का स्व-लिखित पत्र का वाचन किया तो उसमें पं. रत्न श्री हीराचन्द्रजी म.सा. को आचार्य एवं पं. रत्न श्रभ् मानचन्द्रजी म.सा. को उपाध्याय पद प्रदान करने का उल्लेख श्रवण होते ही जन समुदाय ने हर्ष-हर्ष, जय-जय के जयनाद के साथ दोनों पण्डित प्रवरों की जय के गगनभेदी जयघोष कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। रत्नसंघ मे पहली बार उपाध्याय पद पर मनोनयन हुआ है इस कारण से जनभावना मे अच्छा उत्साह देखा गया। उपाध्यायप्रवर का वि.स. 1991 की माघ कृष्णा चतुर्थी को सूर्यनगरी के सुज्ञ श्रावकरत्न श्री अचलचन्दजी सेठिया के घर आंगन में दृढ़धर्मी सुश्राविका श्रीमती छोटाबाईजी की रत्नकुक्षि से जन्म हुआ। व्यावहारिक शिक्षण जोधपुर में हुआ और विद्यार्थी जीवन मे सरलता, सादगी, सहजता, सजगता, सहिष्णुता जैसे गुणानुरागी ने भोपालगढ़ में अध्यापक के रूप में सेवाएं दी। संकल्प-शक्ति के धनी श्री मानचन्द्रजी ने युवावस्था में संतोषवृत्ति के कारण अपने निमित्त से नए वस्त्र नहीं सिलवाने का मन-ही-मन नियम-सा कर लिया, भोजन में जो भी थाली में आ जाता दुबारा न लेते न मांगते। यौवनावस्था में घर-परिवार में विवाह विषयक चर्चा चलने लगी तो सांसारिक बन्धन में नहीं बंधने की भावना से आपने पं. रत्न श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा. से निवेदन किया कि मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत के प्रत्याख्यान करा दीजिए। पं. मुनि श्री ने मर्यादित समय के लिए नियम करवाया पर दृढ़ संकल्प के धनी ने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करने का मानस बना लिया। वि.स. 2020 की वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को जोधपुर में आचार्य श्री हस्ती के मुखारविन्द से मगन-मान की जोड़ी ने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की। नवदीक्षित संतरत्न ने आचार्य भगवन्त एवं नेश्राय गुरु पं. रत्न श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा. की चरण-सन्निधि में साध्वरचार के ज्ञान के साथ बोल-थोकड़ों और आगम शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान किया। सेवा और साधना के पर्याय उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म.सा. ने वि.स. 2034 से 2039 तक घोड़ों के चैक विराजित बाबाजी महाराज की अग्लानभाव से सेवा की उसकी प्रशंसा राजस्थान गौरव सेठ श्री मोहनमलजी चोरड़िया ने यह कहते की कि श्री मानमुनि चैथे आरे की बानगी है। उपाध्यायप्रवर ने वि.स. 2045 का चातुर्मास देश की राजधानी दिल्ली में किया। दिल्लीवासियों ने त्याग की साक्षात् मूर्ति द्वारा समाचारी पालन में दृढ़ता देखी तो उनहें लगा कि ये इतने दृढ़ संकल्पी हैं तो इनके गुरु कैसे हैं, दर्शन-वन्दन करने चाहिए। दिल्ली के श्रावकों ने सवाईमाधोपुर जाकर गुरु हस्ती के दर्शन क्या किए उन्हें तो मानों साक्षात् भगवान के दर्शन हो गए, ऐसा अनुभव हुआ। आचार्य भगवन्त के अन्तिम पाली चातुर्मास में दोनो पं. मुनियों ने भी गुरु आज्ञा से पाली चातुर्मास किया। पाली से निमाज की ओर विहार एवं निमाज पहुँचने पर आचार्य भगवन्त द्वारा संलेखना-संथारा एवं समाधिमरण में दोनों पण्डित प्रवरों की महनीय भूमिका रही। आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन पश्चात् आचार्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा. एवं उपाध्यायप्रवर श्री मानचंदजी म.सा. आदि ठाणा का प्रथम संयुक्त चातुर्मास जोधपुर हुआ। जोधपुर पश्चात् मदनगंज-किशनगढ़, जलगांव और धुले में दोनों महापुरूषों के संयुक्त वर्षावास हुए। परस्पर प्रेम-मैत्री सहयेाग केसाथ एकता-एकरूपता का जन-जन को सुखद अहसास संयुक्त चातुर्मासों की उपलब्धि कहें तो अतिशयोक्ति नहीं है। उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म.सा. आत्मार्थी संत हैं। धीर-वीर-गंभीर प्रकृति क धनी होने के साथ आपश्री प्रबल पुरूषार्थी भी हैं। वर्तमान में स्वास्थ्य में कमजोरी की वजह से विहार की स्थिति नहीं होने से संघनायक ने आपको जोधपुर विराजने का निर्देश किया है। उपाध्यायप्रवर जहाँ भी पधारते हैं वहाँ ज्ञान-ध्यान, त्याग-तप, साधना-आराधना और व्रत-प्रत्याख्यानों का ठाठ लग जाता है। सेवा और साधना के पर्याय उपाध्यायप्रवर का स्वास्थ्य समीचीन बना रहे, जन-जन की यही मुखरित होती रहती है।