जैन धर्म में रत्नवंश एवं परम्परा का परिचय
कालचक्र (20 कोटाकोटि सागरोपम)
जैन धर्म अनादि है, सनातन है, शास्वत है। शास्त्रीत मान्यानतानुसार कालचक्रम में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो कालचक्र हैं, जिन्हें वृद्धिमान और हीयमान नाम से भी कह सकते हैं। गणना की दृष्टि से दस कोटा कोटि सागरोपम कह जाने वाले दोनों कालचक्र बीस कोटा कोटि सागरोपम हैं। लोक में असंख्य द्वीप व असंख्य समुद्र हैं। जम्बूद्वीप घातकी खण्ड एवं अर्द्धपुष्करार्द्ध द्वीप जहाँ मनुष्य निवास करते है, उसे अढ़ाइ्रद्वीप कहते हैं। अढ़ाई द्वीप में पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच महाविदेह इन पन्द्रह क्षेत्रों में मनुष्य निवास करते हैं। जम्बूद्वीप के दक्षिाणार्द्ध भरत क्षेत्र है, जहाँ हम रहते हैं। महाविदेह क्षेत्र में सदा तीर्थंकर भगवान विराजमान रहते हैं, वहाँ न हीयमान और न ही वर्द्धमान स्थिति रहती है। वहाँ सदा भरत क्षेत्र के अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरक के समान स्थिति रहती है।
भरत ऐरवत क्षेत्र में प्रकृति व पुरूष दोनों हीयमान-वृद्धिमान स्थिति को प्राप्त होते रहते हैं। इसे 6 अलग-अलग स्थितियों में विभक्त करते हुए उनहें “आरक” की संज्ञा दी गई है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल के 6 आरक इस प्रकार है:-
- सुषमसुषमा: 4 कोटाकोटि सागरोपम
- सुषम: 3 कोटाकोटि सागरोपम
- सुषम दुषमा: 2 कोटाकोटि सागरोपम
- दुषम सुषमा: 42000 वर्ष कम 1 कोटा-कोटि सागरोपम
- दुषम: 21000 वर्ष
- दुषम दुषमा: 21000 वर्ष
अवसर्पिणी से विपरीत उत्सर्पिणी का होता है। यह उत्थान-पतन का क्रम इनादि-अनन्त काल से चलता रहता है। प्रत्येक कालचक्र में भरत तथा ऐरवत क्षेत्र में 24-24 तीर्थंकर देव होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकर इस प्रकार है:-
क्र. | नाम | पिता का नाम | माता का नाम |
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1 | ऋषभदेव | नाभि | मरुदेवी |
2 | अजितनाथ | जितशत्रु | विजया |
3 | संभवनाथ | जितारी | सेना |
4 | अभिनन्दन | संवर | सिद्धार्था |
5 | सुमतिनाथ | मेघ | मंगला |
6 | पद्मप्रभ | धर | सुसीमा |
7 | सुपाश्र्वनाथ | प्रतिष्ठ | पृथ्वी |
8 | चन्द्रप्रभ | महासेन | लक्ष्मणा |
9 | सुविधिनाथ | सुग्रीव | रामा |
10 | शीतलनाथ | दृढ़रथ | नन्दा |
11 | श्रेयांसनाथ | विष्णु | विष्णु |
12 | वासुपूज्य | वसुपूज्य | जया |
13 | विमलनाथ | कृतवर्मा | सामा |
14 | अनन्तनाथ | सिंहसेन | सुजशा |
15 | धर्मनाथ | भानु | सुव्रता |
16 | शान्तिनाथ | विश्वसेन | अचिरा |
17 | कुंथुनाथ | सूर | श्री |
18 | अरनाथ | सुदर्शन | देवी |
19 | मल्लिनाथ | कुम्भ | प्रभावती |
20 | मुनिसुव्रत | सुमित्र | पद्मावती |
21 | नमिनाथ | विजय | वप्रा |
22 | अरिष्टनेमि | समुद्रविजय | शिवा |
23 | पाश्र्वनाथ | अश्वसेन | वामा |
24 | महावीर | सिद्धार्थ | त्रिशला |
उपर्युक्त 24 तीर्थंकर भगवन्तों की आयु व शासनकाल का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। आचार्य श्री हस्तीमजी म.सा. के निर्देशन में जैन धर्म के मौलिक इतिहास में भी आयु व शासनकाल का उल्लेख है। भगवान ऋषभदेव की 84 लाख पूर्व की आयु थी तो 50 लाख करोड़ सागरोपम का उनका शासनकाल था, जब कि चरम तीर्थंकर भगवान महावीर की आयु मात्र 72 वष्र और शासन 21 हजार वर्ष तक रहेगा।
इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हुए तो अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी। सर्वप्रािम मोक्ष जाने वाली मरूदेव माता थी, तो चरम तीर्थंकर के शासन में आर्य जम्बू मोक्ष पधारे।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ज्ञातकुलीय राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला की कुक्षि से ईस्वी सन् से 599 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को मध्य रात्रि में जन्म लिया। भगवान महावीर के बड़े भाई नन्दिवर्द्धन थे, एक बहिन सुदर्शना थी। यौवनावस्था मे महावीर का विववाह राजा पुत्री व एक बहिन सुदर्शना हुए। यौवन वय में श्रमण भगवान महावीर का राजा समरवीर की सुपुत्री यशोदा के साथ विवाह हुआ। यथासमय एक पुत्री प्रियदर्शना की प्राप्ति हुई, जिसका यथा समय जमालि राजकुमार के साथ विवाह हुआ।
माता-पिता के स्वर्गगमन के दो वर्ष पश्चात् तीस वर्ष की आयु में महावीर ने कुण्डलपुर नगर के ज्ञात खण्ड वन में मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष की कठोर संयम-साधना पश्चात् उनहें जंभृक गांव में वैशाख शुक्ला दशमी को केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति हुई। प्रभु की प्रथम खाली गई, उसमें किसी ने व्रत-प्रत्याख्यान अंगीकार नहीं किया। द्वितीय देशना वैशाख शुक्ला द्वादशी को हुई जिसमें धर्म तीर्थ की स्थपना हुई व उसी दिन इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों एवं उनके 4400 शिष्यों तथा आर्या चन्दनबाला आदि ने दीक्षा अंगीकार की। 72 वर्ष की वय में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को पावापुरी में हस्तिपाल राजा की रज्जुशाला में भगवान निर्वाण को प्राप्त हुए।
श्रमण भगवान महावीर ने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना की। प्रभु का उपदेश आगम शास्त्रों के रूप में गुंथित है। श्रमण भगवान महावीर के 11 गणधर (प्रमुख शिष्य हुए) जिनके नाम इस प्रकार हैं:-
क्र. | नाम | केवली पर्याय | कुल आयु | शिष्य |
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1 | श्री इन्द्रभूतिजी | 12 | 92 | 500 |
2 | श्री अग्निभूतिजी | 16 | 74 | 500 |
3 | श्री वायुभूतिजी | 18 | 70 | 500 |
4 | श्री व्यक्तस्वामीजी | 18 | 80 | 500 |
5 | श्री सुधर्मा स्वामीजी | 8 | 100 | 500 |
6 | श्री मण्डितपुत्रजी | 16 | 83 | 350 |
7 | श्री मौर्यपुत्रजी | 16 | 95 | 350 |
8 | श्री अकम्पितजी | 21 | 95 | 300 |
9 | श्री अचलभ्रातजी | 14 | 72 | 300 |
10 | श्री मैतार्यजी | 14 | 62 | 300 |
11 | श्री प्रभासजी | 16 | 40 | 300 |
भगवान महावीर के विराजमान रहते 14 में से 12 शिष्य निर्वाण को प्राप्त हुए। प्रभु के निर्वाण पश्चात् अगले दिन प्रथम गणधर इन्द्रभूति को केवल्य की प्राप्ति हुई। पाँचवें गणधर आर्य सुधर्मा, भगवान के प्रथम पट्ठधर हुए।
भगवान महावीर स्वामी की पट्ट-परम्परा का उल्लेख आगम शास्त्रों में, अतिहास की कृतियों में एवं विभिन्न पुस्तकों में देखने-पढ़ने को मिलता है।
वीर शासन में आर्य जम्बू अन्तिम केवली हुए तथा आर्य भद्रबाहु अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर हुए। देवद्र्विगणि अन्तिम एक पूर्वधर हुए जिन्होंने शास्त्रों की लिपिबद्ध करने की परम्परा प्रारम्भ की।
स्थानकवासी परम्परा का अनुरूद्योत
वि.स. 1508 में धर्मप्राण वीर लोंकाशाह का अभ्युदय हुआ। वीर लोंकाशाह ने धर्म के नाम पर चलने वाले पाखण्ड, ढोंग और स्वार्थलोलुपी आडम्बरों-क्रियाकाण्डों का पर्दाफाश करके शुद्ध-सत्य मार्ग का प्ररूपण किया। लोंकाशाह के उपदेश से श्री लखमसीजी, श्री जगमालजी आदि 45 पुरूषों ने एक साथ भागवती दीक्षा ली। वीर लोंकाशाह में बहुसंख्यक जनसमुदाय को आकर्षित, प्रभावित और प्रेरित करने की शक्ति थी। पूज्य श्री लवजीऋषिजी महाराज, पूज्य श्री धर्मसिंहजी महाराज, पूज्य श्री धर्मदासजी म.सा. स्थानकवासी परम्परा के प्रमुख आचार्य हुए।
पूज्य आचार्य श्री धर्मदासजी म.सा. के त्याग व बलिदान से जैन समाज गौरवान्वित है। धर्म ही उस अलौकिक महापुरूष का प्राणा था। उनके 99 शिष्यों में 22 संघटकों ने देश भर में धर्म का प्रचार किया, इसलिए स्थानकवासी परम्परा को बाईस सम्प्रदाय या 22 टोलों के नाम से पहिचान मिलती है।
पूज्य आचार्य श्री धर्मदासजी म.सा. के तपोधनी शिष्य पूज्य श्री धन्नाजी म.सा. ने मरूधरा में खूब धर्म प्रभावना की। संयम-साधक पूज्य री रसना त्यागी थे। उनकी एकान्तर तप-साधना तो निरन्तर बनी रही ही, वे प्रमाद-विजय में रत एवं आत्म-चिन्तन में लीन रहते थे।
पूज्य आचार्य श्री धन्नाजी म.सा. के उत्तराधिकारी क्षमामूर्ति-तपोधनी पूज्य श्री भूधरजी म.सा. हुए। क्षमामूर्ति आचाय्र श्री भूधरजी म.सा. के चार प्रमुख शिष्य हुए उनमें पूज्य श्री रघुनाथजी म.सा. पूज्य श्री जयमलजी म.सा. पूज्य श्री जेतसीजी म.सा. एवं पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. की आगे चलकर परम्पराएँ प्रारंभिक हुई। पूज्य श्री रघुनाथजी म.सा. के शिष्य भी भीखणजी (भिक्षु स्वामी) ने वि.स. 1817 में तेरापंथ परम्परा की स्थापना की।
परम्परा के मूलपुरूष पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा. की शिष्य पट्ट परम्परा का संक्षिप्त विवरण:-
क्र. | नाम | माता पिता के नाम | जन्म व स्थान | दीक्षा | आचार्य पद | देवलोकगमन |
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1 | पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा. | पिता-श्री लादूरामजी चंगेरिया माता-श्रीमती कानूबाइ्रजी | विक्रमसंवत 1767 चैत्रकृष्णा तृतीया, रिंया सेठों की | विक्रम संवत 1794 फाल्गुनशुक्ला सप्तमी,रिंया | आचार्य पदग्रहणनहीं किया | विक्रमसंवत् 1840ज्येष्ठकृष्णा षष्ठीनागौर (राज.)तीन दिवसीय संथारे केसाथ समाधिमरण |
2 | पूज्यश्रीगुमानचन्दजी म.सा. | पिता-श्री अखेराजजी लोहिया माता- श्रीमती चेनाबाइ्रजी | जोधपुर | विक्रम संवत 1818 मार्गशीर्षकृष्णा एकादशी,मेड़तासिटी | विक्रम संवत् 1840 | विक्रमसंवत 1858 कार्तिक कृष्णा अष्टमी, मेड़तासिटी (जिला-नागौर) |
3 | पूज्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. | पिताश्रीलालचन्दजीबड़जात्या माता-श्रीमती हीरादेवीजी दत्तकपुत्र-श्रीगंगारामजी नागौर निवास के यहाँ वि.स. 1840 को गोद गए | विक्रमसंवत 1834,वैशाख शुक्ला पंचमी, कुड़ग्राम(नागौर) | विक्रम संवत 1848 वैशाखशुक्ला पंचमी,मण्डोर (जोधपुर) | विक्रमसंवत 1882, मार्गर्षशुक्ला त्रयोदशी, जोधपुर | विक्रमसंवत 1902,ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी, जोधपुर सागारी संथारे के साथ समाधिमरण आचार्यकाल 1882 से 1902 |
4 | पूज्य श्री हमीरमलजी म.सा. | पिता-श्री नगराजजी गांधी माता-श्रीमती ज्ञानदेवीजी | विक्रमसंवत 1852, नागौर | विक्रम संवत 1863, फाल्गुनशुक्ला सप्तमी, बिरांटिया | विक्रमसंवत 1902,आषाढ़ कृष्णात्रयोदशी, जोधपुर | विक्रमसंवत 1910,कार्तिक कृष्णा एकम्, नागौर (राज.) बीसप्रहरिया सागारी संथारा आचार्यकाल 1902 से 1910 |
5 | पूज्यश्रीकजोड़ीमलजी म.सा. | पिता-श्री शम्भूलालजी सोनी माता-श्रीमती वंदनाजी | किशनगढ़ (जिला-अजमेर) राज. | विक्रम संवत 1887 माघशुक्ला सप्तमी, अजमेर | विक्रमसंवत 1910माघ शुक्ला पंचमी अजमेर | विक्रमसंवत् 1936,वैशाख शुक्लातृतीया, अजमेरसंथारे के प्रत्याख्यान आचार्यकाल 1910 से 1936 |
6 | पूज्यश्रीविनयचन्दजीम.सा. | पिता-श्रीप्रतापमलजीपुंगलिया माता-श्रीमती रंभादेवीजी | विक्रमसंवत 1897, आश्विन शुक्ला चतुर्दशी, फलौदी | विक्रम संवत 1912, मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया, अजमेर | विक्रम संवत 1937, ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी अजमेर (राज.) | विक्रम संवत 1972, मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी, जयपुर में समाधिमरण आचार्य काल 1937 से 1972 |
7 | पूज्य श्री शोभाचन्दजी म.सा. | पिता-श्रीभगवानदासजी छाजेड़ मेहता माता-श्रीमती पार्वतीदेवीजी | विक्रम संवत 1914, कार्तिक शुक्ला पंचमी, जोधपुर | विक्रम संवत 1927, माघ शुक्ला पंचमी, जयपुर | विक्रम संवत 1972, फाल्गुन कृष्णा अष्टमी, अजमेर (राज.) | विक्रम संवत 1983, श्रावण कृष्णा अमावस्या, जोधपुर में समाधिमरण आचार्य काल 1972 से 1983 |
8 | पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. | पिता-श्री केवलचन्दजी बोहरा माता-श्रीमती रूपादेवीजी बोहरा | (महासती श्री रूपकंवरजी म.सा.) विक्रम संवत 1967, पौष शुक्ला चतुर्दशी, पीपाड़शहर | विक्रम संवत 1977, माघ शुक्ला द्वितीया, अजमेर | विक्रम संवत 1987, वैशाख शुक्ला तृतीया, सिंहपोल-जोधपुर (राज.) | विक्रम संवत 2048, वैशाख शुक्ला अष्टमी, निमाज (जिला-पाली) आचार्य काल वि.सं. 1987 से 2048 |
9 | पूज्य आचार्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा. | पिता-श्री मोतीलालजी गांधी माता-श्रीमती मोहिनीदेवीजी | विक्रम संवत्-1995 चैत्र कृष्णा अष्टमी पीपाड़शहर | विक्रम संवत्-2020 कार्तिक शुक्ला षष्ठी पीपाड़शहर | विक्रम संवत्-2048 प्रथम, वैशाख शुक्ला नवमी, को आचार्य घोषित निमाज चादर महोत्सव वि.स. 2048 ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी जोधपुर |
परम्परा के मूल पुरूष पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. परम प्रतापी क्षमामूर्ति पूज्य आचार्य श्री भूधरजी म.सा. के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे। उन्होंने वि.सं. 1794 की फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को दीक्षा अंगीकार की। अपने 45 वर्ष की निर्मल संयम-साधना में शिष्य परिवार होते हुए भी उस महापुरूष ने आचार्य पद ग्रहण नहीं किया और गुरुभ्राता पूज्य श्री जयमलजी म.सा. के साथ रहकर गुरुभ्राता के प्रति परस्पर प्रेम का अनूठा आदर्श उपस्थित किया। निर्मल संयम साधक, दृढ़ प्रतिज्ञ परम्परा के मूलपुरूष ने परम्परा का बीजारोपण किया। गुरुभ्राता के प्रति घनिष्ठ प्रेम का पाठ इस परम्परा का आदर्श रहा। अपने आराध्य गुरुवर्य पूज्य आचार्य श्री भूधरजी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् गुरुभ्राता पूज्य श्री जयमलजी म.सा. के साथ परम्परा के मूलपुरूष पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. ने भी प्रतिज्ञा ले ली कि अब पृथ्वी पर लेटकर निद्रा नहीं लूंगा। पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. ने 45 यशस्वी चातुर्मास करके शासन की प्रभावना की।
रत्नवंश के प्रथम पट्टधर
कुशलवंश परम्परा के प्रथम आचार्य पूज्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा. माहेश्वरी जाति के सम्पन्न सद्गृहस्थ थे। अपनी मातुश्री के स्वर्गगमन पश्चात् पिता-पुत्र (श्री अखेराजजी व श्री गुमानचन्द्रजी) परम्परागत रीति के अनुसार अस्थियाँ विसर्जित करने तीर्थराज पुष्कर गए। लौटते समय मेड़ता नगर मे जहाँ उस समय उत्कट चारित्र के धनी पूज्य पूज्य श्री गुशलचन्द्रजी म.सा. विराज रहे थे, दर्शन-वन्दन के साथ पिता-पुत्र में भक्ति भावना का ऐसा संचरण हुआ कि उन्हें संसार के प्रति उदासीनता हो गई। वि.स. 1818 की मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को पिता-पुत्र दोनों ने पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. के मुखारविन्द से पावन प्रव्रज्या अंगीकार कर ली।
रत्नवंश के द्वितीय पट्टधर
परम प्रतापी कीर्ति-निस्पृह क्रियोद्धार आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का जन्म कुड़ ग्राम में सरावगी परिवार में हुआ। माता हीरादेवीजी ने स्वप्न में जलते हुए दीप में अपने मुँह में प्रवेश करते देखा तो पिताश्री लालचन्द्रजी ने गुण निष्पन्न नाम “रत्नचन्द्र” रखा। कुड़ जैसे छोटे से गाँव में जन्म लेने वाले प्रज्ञा व प्रतिभा सम्पन्न बालक को नागौर निवासी सेठ गंगारामजी ने वि.स. 1840 में दत्तक-पुत्र के रूप में गोद ले लिया। वि.स. 1847 में ज्ञान-क्रिया सम्पन्न आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा.. आदि ठाणा नागौर पधारे तो शुद्ध अन्तःकरण के धनी रत्नचन्द्रजी के मन में वैराग्यमय उपदेश श्रवण कर विरक्त भावना जागृत हुई। वैराग्यवान रत्नचन्द्रजी ने दीक्षा की ठान ली। माता की आज्ञा नहीं थी, फिर भी वि.स. 1848 की वैशाख शुल्का पंचमी को मण्डोर की नागादड़ी के पास दीक्षा ग्रहण कर नवदीक्षित मुनि को “चिन्तामणि रत्न” मिलने की खुशी हुई।
रत्नसंघ के तृतीय पट्टधर
परम्परा के तीसरे आचार्य पूज्य श्री हमीरमलजी म.सा. परम गुरुभक्त, विनय मूर्ति और विशिष्ट साधक महापुरूष थे। नागौर मूल के श्रावकरत्न श्री नगराजजी गाँधी के घर-आँगन में माता ज्ञानदेवीजी रत्नकुक्षि से 1852 में जन्म बालक हमीरमल को मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में पिता के वियेाग से संसार की असारता का भान हुआ। वि.स. 1863 की फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को बिरांदिया ग्राम में पूज्य श्रीरत्नचन्द्रजीम .सा. ने हमीरमलजी को दीक्षितकिया। ज्ञान-क्रिया सम्पन्न मुनिश्री ने चार विगय का त्याग तो किया ही, दस द्रव्यों की मर्यादा भी कर ली। परीषह विजयी पूज्य श्री हमीरमलजी म.सा. प्रखर उपदेशक थे। विनयचन्द्र चोबीसी के रचियिता श्री विनयचन्द्रजी ने पूज्य श्री हमीरमलजी म.सा. के वचन रूपी बीज को विद्वत्समाज तक पहुँचाया। आचार्यश्री के लेखन-कला बड़ी सुन्दर थी। उनके लिखे ग्रन्थ आज भी अनमोल निधि के रूप में सुरक्षित है।
रत्नवंश के चतुर्थ पट्टधर
पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. का जन्म किशनगढ़ मे ओसवंशीय श्रावक श्री शम्भूमलजी सोनी के घर-आँगन में माता वंदनाजी की रत्नकुक्षि से हुआ। आठ वर्ष की लघुवय में माता-पिता के स्वर्गगमन से बालक के मन पर वज्रपात हुआ पर अजमेर में सत्संग-सेवा और संत-समागम के सुयोग से आपकी विरक्त भावना उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होती गई। श्रेष्ठ कार्यों में प्रायः विध्न आते ही है। दीक्षा रोकने के लिए कोर्ट-कचहरी तक बात गई, किन्तु न्यायाधीश ने आपकी दृढ़ता देखकर दीक्षा की अनुमति दे दी। वि.स. 1887 में माघ शुक्ला सप्तमी को अजमेर में आपकी दीक्षा हुई।
रत्नवंश के पंचम पट्टधर
कुशलवंश परम्परा के पंचम नायक पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. इस युग के श्रुत केवली, साम्प्रदायिक सहिष्णुता के सन्देशवाहक, वात्सल्य-मूर्ति शासन प्रभावक महापुरूश रहे। जोधपुर जिलान्तर्गत फलौदी के ओेसवंशीय श्रावकरत्न श्री प्रतापमलजी पुंगलिया के घर-आँगन में माता रम्भादेवीजी की रत्नकुक्षि से वि.स. 1897 की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को जन्मे बालक का नाम गुण सम्पन्न आकृति को ध्यान में रखकर “विनयचन्द्र” रखा गया। माता-पिता के स्वर्गवास पश्चात् बहन-बहनोई के सहयोग से पाली में व्यापार शुरू किया। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. की वैराग्यमय वाणी श्रवण करके आपके हृदय में संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का बोध हुआ।
रत्नवंश के षष्ठ पट्टधर
जीवन निर्माण के शिल्पकार, दूरदर्शी धीर-वीर-गम्भीर पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. कुशलवंश परम्परा के षष्ठ पट्टधर हुए। उनका जन्म जोधपुर में वि.स. 1914 की कार्तिक शुक्ला पंचमी जिसे ज्ञान पंचमी, सौभाग्य पंचमी, श्रुत पंचमी जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता है, चरितनायक का जन्म सुश्रावक श्री भगवानदासजी छाजेड़ के घर-आँगन में माता पार्वतीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक शोभाचन्द्र बाल सुलभ चेष्टाओं से दूर रहकर शान्त व एकान्त स्थान पर चिन्तन-मनन में रत रहने लगे। पिताश्री ने 10 वर्ष की लघुवय में बालक को काम-धंधे मे लगा दिया। पिताश्री की सोच थी कि धन-प्राप्ति के लालच में संसार के प्रति उदासीनता का भाव तिरोहित हो जाएगा किन्तु परम प्रतापी आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के वैराग्यपूर्ण उपदेश सुनकर बालक शोभाचन्द्र आत्मिक गुणों की शोभा का पूर्ण चन्द्र बनने के लिए तत्पर हो गए। दृढ़ संकल्पी को अव्रत पीड़ादायक लगता है। बालक की पुनः पुनः दीक्षा की अनुमति को पिताश्री नकार नहीं सके। पारखी गुरु ने बालक शोभा की दृढ़ वैराग्य भावना का पहले से अंकन कर लिया था अतः वि.स. 1927 माघ शुक्ला पंचमी को जयपुर में पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के मुखारविन्द से उनकी दीक्षा सम्पन्न हुई।
रत्नसंघ के सप्तम् पट्टधर
इस युग के यशस्वी-मनस्वी-तपस्वी, प्रतिपल स्मरणीय परमाराध्यम आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. का जन्म जोधपुर जिलान्तर्गत पुण्यधरा पीपाड़शहर में वि.स. 1967 की पौष शुक्ला चतुर्दशी को दृढ़धर्मी सुश्रावक श्री केवलचन्दजी बोहरा के घर-आँगन में माता रूपादेवीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक हस्ती का जीवन माता के गर्भ में था तब पिता श्री केवलचन्दजी बोहरा प्लेग रोग की चपेट में आकर चल बसे। मातुश्री श्री रूपादेवीजी संसार की क्षणभंगुरता और शरीर की अनित्यता से परिचित थी परन्तु बालक की परवरिश के कत्र्तव्यबोध के कारण श्राविकारत्न को दीक्षित होने से रूकना पड़ा।
रत्नसंघ के अष्टम पट्टधर
आगमज्ञ, प्रवचन-प्रीााकर, व्यसन मुक्ति प्रबल प्रेरण, जिनशासन गौरव आचार्यगृप्रवर पूज्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा. रत्नवंश के अष्टम पट्टधर हैं, गुरु हस्ती के उत्तराधिकारी हैं। आपका जन्म जोधपुर जिलान्तर्गत पुण्यधरा पीपाड़शहर में वि.स. 1995 की चैत्र कृष्णा अष्टमी को संघ-प्रेमी सुश्रावक श्री मोतीलालजी गाँधी के घर-बाँगन में सुश्राविका श्रीमती मोहिनीदेवीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। छोटी बहिन के वियोग से संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास हाने तथा गुरु-सेवा मे समर्पण के बल पर आपकी वैराग्य भावना वि.स. 2020 की कार्तिक शुक्ला षष्ठी को साकार हुई। आचार्य श्री हस्ती के पीपाड़शहर चातुर्मास में पीपाड़शहर के मूल के मुमुक्षु बन्धु की दीक्षा उस चातुर्मास की महतवपूर्ण उपलब्धि रही।
आचार्य श्री हीरा का व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व प्रभावी है। चतुर्विध संघ गुरु हस्ती पट्टधर गुरु हीरा से अपेक्षा रखता है कि आप संघ-समाज को निरन्तर आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करते रहें।
उपाध्याय पं. रत्न श्री मानचन्द्रजी म.सा.
अध्यात्मयोगी-युगमनीषी आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने अपने अन्तिम पाली चातुर्मास में प्रवचन सभा में कई बार जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए फरमाया कि मेरी ये दोनों भुजाएं मजबूत है। पं. रत्न श्री मानचन्द्रजी म.सा. व पं. रत्न श्री हीराचन््रदजी म.सा. आचार्य भगवन्त के आजू-बाजू विराजते थे। भगवन्त की भावना का प्रवचन-सभा में जनसमुदाय को भले ही हार्द समझ में नहीं आया किन्तु आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन पश्चात् श्रद्धाजंलि-सभा में भगवनत का स्व-लिखित पत्र का वाचन किया तो उसमें पं. रत्न श्री हीराचन्द्रजी म.सा. को आचार्य एवं पं. रत्न श्रभ् मानचन्द्रजी म.सा. को उपाध्याय पद प्रदान करने का उल्लेख श्रवण होते ही जन समुदाय ने हर्ष-हर्ष, जय-जय के जयनाद के साथ दोनों पण्डित प्रवरों की जय के गगनभेदी जयघोष कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की।
विक्रम संवत् 2072 तक रत्नसंघीय संत–मुनिराज:-