रत्नसंघ

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जैन धर्म में रत्नवंश एवं परम्परा का परिचय

कालचक्र (20 कोटाकोटि सागरोपम)

जैन धर्म अनादि है, सनातन है, शास्वत है। शास्त्रीत मान्यानतानुसार कालचक्रम में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो कालचक्र हैं, जिन्हें वृद्धिमान और हीयमान नाम से भी कह सकते हैं। गणना की दृष्टि से दस कोटा कोटि सागरोपम कह जाने वाले दोनों कालचक्र बीस कोटा कोटि सागरोपम हैं। लोक में असंख्य द्वीप व असंख्य समुद्र हैं। जम्बूद्वीप घातकी खण्ड एवं अर्द्धपुष्करार्द्ध द्वीप जहाँ मनुष्य निवास करते है, उसे अढ़ाइ्रद्वीप कहते हैं। अढ़ाई द्वीप में पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच महाविदेह इन पन्द्रह क्षेत्रों में मनुष्य निवास करते हैं। जम्बूद्वीप के दक्षिाणार्द्ध भरत क्षेत्र है, जहाँ हम रहते हैं। महाविदेह क्षेत्र में सदा तीर्थंकर भगवान विराजमान रहते हैं, वहाँ न हीयमान और न ही वर्द्धमान स्थिति रहती है। वहाँ सदा भरत क्षेत्र के अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरक के समान स्थिति रहती है।

भरत ऐरवत क्षेत्र में प्रकृति व पुरूष दोनों हीयमान-वृद्धिमान स्थिति को प्राप्त होते रहते हैं। इसे 6 अलग-अलग स्थितियों में विभक्त करते हुए उनहें “आरक” की संज्ञा दी गई है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल के 6 आरक इस प्रकार है:-

  1. सुषमसुषमा: 4 कोटाकोटि सागरोपम
  2. सुषम: 3 कोटाकोटि सागरोपम
  3. सुषम दुषमा: 2 कोटाकोटि सागरोपम
  4. दुषम सुषमा: 42000 वर्ष कम 1 कोटा-कोटि सागरोपम
  5. दुषम: 21000 वर्ष
  6. दुषम दुषमा: 21000 वर्ष