रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-11 (Supatradaan Vivek-11)

साधु के निमित्त उपाश्रय में लाकर देना व साधु के लिए अन्य ग्रामादि से मंगवा कर देना। ऐसे आहार को साधु कष्टतम काल में भी कदापि ग्रहण न करे, कारण कि इस प्रकार के आहार को ग्रहण करने से अनेक दोषों के उत्पन्न होने की संभावना है। ऐसे दोष युक्त आहार लेना सर्वथा अयोग्यहै। क्यों अयोग्य है? इस प्रश्न के विषय में भी यह समाधान है कि ऐसे दोष युक्त पदार्थों को लेने से साधु की आत्मा में दुर्बलता-प्रतिज्ञाहीनता आ गई तो फिर साधुता कहाँ? दुर्बलता और साधुता का तो परस्पर विरोध है।

साधु भगवन्त श्रमण होते हैं। वे बिना श्रम से सामने आई वस्तु को स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी गोचरी मधुकरी होती है घर-घर जाकर ही भिक्षा अंगीकार करते हैं। सामनेसे लाया गया आहार सदोष उनके निमित्त बनाया हुआ हो सकता है। ऐसे टिफिन का आहार या उनके लिये न बनाया हो पर गृहस्थ के अवशेष आहार भी हो तो श्रमण भगवन्तों के लिए अकल्पनीय है।

साधु भगवन्त गोचरी पर पधारते हैं तो ऐसे सर्वसम्मतकारी-पूर्ण पुरुषार्थ वाली भिक्षा उन्हें आत्म आनन्द देती ही है साथ में शासन की भी प्रभावना होती है। आमजन जैन साधुओं की भिक्षावृत्ति से परिचित होते हैं। जहाँ जाते हैं वहाँ जन जिनशासन से जुड़ते हैं।

अतः श्रमणोपासक सामने से ले जाकर आहार देने की वृत्ति कभी न रखे, ना ही इसे प्रोत्साहित करे। अपितु विहार की सेवा में समय निकाल वहाँ के लोगों को जैन साधुओं की वृत्ति एवं अहिंसक, पौरुषेय ऐसी वृत्ति के बारे में अवगत करावें।