रत्नसंघ

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ज्ञान

अप्रासुक, सचित्त और असूझता इन तीनों शब्दों का अर्थ एक ही है। इन शब्दों का अर्थ है जीव सहित जो वस्तु है वह सचित्त है और जिन बीजों में उगने की शक्ति है वह भी सचित्त है। जैसे—गेहूँ, जौ, फलों के बीज आदि।

जिसमें जीव नहीं है वह अचित्त है। जैसे बीज निकाले हुए फल, पकी हुई सब्जी, धोवन—गरम पानी, लौंग आदि।
साबुन मसाले जैसे—जीरा, सौंफ, धान्य गेंहूँ, बाजरा, जौ आदि। साग—सब्जी, बिना साफ किये हुए बीज सहित फल, नमक आदि सभी सचित्त है।
किसी खास कारण और प्रयोग से अचित्त हो जाती है। जैसे आग पर पकने से, भूनने से पके हुए फल को साफ करके उसमें से बीज को बाहर निकाल देने पर अचित्त हो जाती है। बीज की उगन की शक्ति नष्ट हो जाने पर वस्तु अचित्त हो जाती है। जैसे—अन्न, साग—सब्जी के पक जाने पर, नमक को गरम करने पर।
सचित्त वस्तुओं को अचित्त चीजों के साथ नहीं रखनी चाहिये। इसी तरह अचित्त चीजों के साथ—साथ चीजों को नहीं रखना चाहिये। जैसे—सूखा नाश्ता, खाखरा, मठरी, बिस्कीट, नमकीन, मिठाई आद के साथ अन्न, साग सब्जी, बिना साफ किये हुए फल (बीज वाले फल) साबुत मसाले आदि नहीं रखने चाहिये।
छह काय जीवों के रक्षक हमारे साधु—साध्वीजी म.सा. यदि गोचरी के लिए पधारते हैं तो एक—दूसरी चीजें, एक—दूसरी से सटी हुई हुई रखने पर उनको उठा नहीं सकते हैं क्यों कि घर असूझता हो जाता है। (क्यों कि हरी साग—सब्जी, फल आदि में सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव होते है उनको हिलाने पर उनको कष्ट होता है और मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते है।
महाराज साहब के पधारने पर चलती गैस बंद करना, गैस नहीं जलाना, मोबाईल और फोन नहीं उठाना, पहनी हुई सेल की घड़ी नहीं उतारना, लाईट नहीं जलाना, जलती लाईट नहीं बुझाना, पंखा, कूलर, ए.सी. नहीं चलाना और इनको चलते हुए बंद नहीं करना। बजते हुए मोबाईल फोन को नहीं उठाना, सचित्त पानी से हाथ नहीं धोना आदि। महाराज साहब के गोचरी के समय घर का दरवाजा खोलकर भावना भाना चाहिये। दरवाजा नहीं खुले होने पर महाराज साहब के साथ आया हुआ व्यक्ति कई बार दरवाजा खुलवाने के लिए घंटी बजा देता है तो महाराज साहब वापिस लौट जाते हैं। (क्यों कि अग्निकाय के जीवों की विराधना हो जाती है।)
अचानक बिना मालूम ही संत—सती हमारे घर गोचरी पधारते हैं तो सहज ही सुपात्र दान का लाभ मिल जाता है। सुपात्र दान से अनन्त पुण्यवानी बंधती है। सुबाहु कुमार ने सुपात्र दान देकर तीर्थंकर गौत्र का बंध कर लिया था। भगवान महावीर के जीव ने नयसार के भव में सुपात्र दान देकर सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया था।
नमक, सचित्त पानी, सभी प्रकार की अग्नि, पंखा, कूलर चलाना,—बंद करना, फूंक मारना, कच्चे साग—सब्जी, सचित्त धान्य वगैरह को नहीं छूना चाहिये यहाँ तक की हटाना भी नहीं चाहिए। जहाँ पड़े है वहीं रहने देना चाहिये।
क्यों कि ऊपर बताई हुई सभी सचित्त चीजों में सूक्ष्म जीव रहे हुए है।’ ‘ जो छूने मात्र से मृत्यु को पाते हैं इसलिए छहकाय रक्षक हमारे साधु—साध्वीजी महाराज साहब हमसे आहार पानी ग्रहण नहीं करते है।
जय गुरू हीरा—जय गुरु मान
धोवन पानी निर्दोष जिन्दगानी

पानी की और अन्य किसी पदार्थ की अम्लता नापने का पैमाना पी.एच.वेल्यू है।
1. यदि पानी की पी.एच.वेल्यू 7 होती है तो वह न्यूट्रल पानी कहलाता है।
2. यदि पानी की पी.एच.वेल्यू 7 से ऊपर होती है तो वह अल्कलाइन पानी कहलाता है।
3. यदि पानी की पी.एच.वेल्यू 7 इसे कम है तो वह ऐसिटिक पानी कहलाता है।
7.न्यूट्रल पानी, +7 अल्कलाइन पानी, —7 ऐसिटिक पानी
डा. जयेशभाई पटेल कहते है कि—अल्कलाइन पानी यादि राख से धोवन पानी पीने से जीवन में आध्यात्मिकता के शिखर पर पहुँचा जा सकता है।
प्रश्न: कैसे?
डा. ने जवाब दिया कि जिस प्रकार भोजन का असर मन पर होता है। उसी प्रकार अल्कलाइन पानी से राग, द्वैष, वैर, वैमनस्थ और आसक्ति घटती है। बुद्धिमानी इसी में है, कि बीमार पड़कर बाद में स्वस्थ बने, उससे तो बेहतर है कि राख के प्रयोग से बीमार ही न पड़े हमेशा स्वस्थ रहे।

श्री आचारांग सूत्र दूसरा श्रुत स्कंध और अन्य आगमों में निम्नलिखित धोवन (अचित्त) पानी बताया गया है।
चावल, दाल, तिल, तुष, जवआदि का धोया हुआ पानी।
दूध और छाछ का धोवन (धोया हुआ)।
आरे की परात को धोया हुआ पानी, ओसामण का पानी।
आम, केरी, इमली, आमला, दाख, खजूर, कैर, बोर, नारियल, खारक, अन्नार, शख और चूना का धोवन पानी।
उपरोक्त सभी प्रकार के पानी का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श बढ़ता जाना चाहिये तभी पानी अचित्त बनता है और सचित्त के त्यागी श्रावक को पीने में तथा पूज्य पंचमहाव्रत धारी संत, सतीजी को बहराने के काम आ सकता है।
धोवन पानी का बर्तन ढककर रखना चाहिये क्योंकि एक बूंद भी सचित्त जल की उसमें जाने से पूरा पानी सचित्त हो जाता है।
धोवन पानी फ्रिज में या सचित्त पानी के परडें के पास भी नहीं रखना चाहिए, फ्रिज में पानी बहुत सचित्त हो जाता है।
बर्फ के या ठंडे से धोवन पानी बनाना अप्रमाणिक है।

हमारे आध्यात्मिक जीवन में धोवन पानी का कितना महत्व है और वैज्ञानिक आधार से भी यह सिद्ध किया गया है कि अल्कलाइन पानी यानी धोवन पानी स्वास्थ्य के लिये कितना अनुकूल है।
आज सामान्य जैन बंधु इस आध्यात्मिक तत्व को नहीं समझने के कारण ही कच्चे पानी का उपयोग करते है।
यदि उनको यह समझ में आ जाये कि धोवन पानी अध्यात्म एवं स्वास्थ्य दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है, तो धोवन पानी अपनाने में वह जरा भी संकोच नहीं करेगा!
आज हमारे पूज्य वर्ग को आहार तो सभी जगह उपलब्ध हो जाता है किंतु धोवन पानी उपलब्ध नहीं होता।
यदि प्रत्येक घर में धोवन पानी पीने वाले सदस्य हो तो सहज ही महापुरूषों को कभी इसका लाभ मिल सकता है।
आगम में सबसे बड़ा लाभ शय्यांतर का, उसके बाद धोवन पानी का, तत्पश्चात आहार बहराने का लाभ बतलाया गया है।
किंतु धोवन पानी के लाभ से अनभिज्ञ बेक आहार को ज्यादा महत्व देने लगे है,जो कि योग्य नहीं है।
भीषण गर्मी के समय में यदि महापुरूष विहार कर पधारे तो आहार तो सभी घरों में उपलब्ध हो सकता है, पर धोवन पानी के अभाव में उस आहार को लाकर क्या करेंगे? पहले धोवन पानी की ग्वेषणा करेंगे और धोवन पानी मिलने पर ही आहार ग्रहण करेंगे।
उस समय यदि धोवन पानी हमारे यहाँ उपलब्ध हो जाता है तो महान् कर्म निर्जरा का कारण बन जाता है!
अत! धोवन पानी पीना सभी जैन परिवारों के लिये अति आवश्यक है।

धोवन पानी जीवाणु (बेक्टीरिया) रहित होता है। (लेबोरेट्री में प्रयोग किया गया है।
रोग नहीं होने से शरीर स्वस्थ रहता है।
जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है।
सुपात्र दान की भावना आ सकती है।
साधु—साध्वियों को निर्दोष आहार—पानी बहरा सकते है।
स्वधर्मी बंधुओं को निर्दोष पानी पिलाने का लाभ होता है।
अपकाय जीवों का रक्षण होता है।
महान कर्मों की निर्जरा होती है।
भगवान ने बताया है कि एक बूंद कच्चे पानी की एक बूंद में असंख्यात जीव और विज्ञान ने एक बूंद में 36,450 त्रस जीव चलते—फिरते बताये है।

वर्तमान में जीवों के प्रति अनुकंपा और धर्म के प्रति आस्था घटती जा रही है। जिससे परिणाम स्वरूप जल जनित बीमारियाँ सभी घरों में हावी हो चुकी है।
पानी की एक बूंद में भगवान ने असंख्यात जीव बताएँ उसी बात को ध्यान में रखते हुए सुबह के परिंडे के बर्तन सर्फ या डिटरजेंट से न धोकर राा से धोये जाये और उस पानी को बचाकर रखा जाये और संयोग से पूज्य संत—सतियों का घर पर आना हुआ तो सुपात्रदान का अवसर मिल जाएगा।
अपात्रदान से ही शंख राजा ने तीर्थंकर गौत्र का बहानिया जो नेमिनाथ भगवान बने।

कच्चे पानी को पीने से त्रस—स्थावर जीवों की हिंसा और रोग बढ़ने की संभावना! जीवाणु युक्त होने से सभी रोगों का घर सुपात्र दान की भावना से वंचित

राख का पानी आध्यात्मिक और स्वास्थ्य दोनों दृष्टि से हमारे लिये हितकारी है। कई वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों ने अपनी जाँच में पाया कि शरीर कि स्वस्थ्ता के लिये शरीर में 20 प्रतिशत अम्ल, 80 प्रतिशत क्षार और पी.एच.वेलयु का लेवल न्यूनतम 7 का होना जरूरी है। इसके लिये राख का पानी सर्वश्रेष्ठ है। जिसमें पानी का पी.एच.लेवल आठ से ज्यादा होता है।
इसके अतिरिक्त कुछ वैज्ञानिक प्रयोगों में यह पाया गया कि अल्कलाइन पानी पीने से हड्डी का धनत्व बढ़ता है। आज प्राय: 40 वर्ष की आयु के बाद हड्डी का धनत्व कम होना एक आम समस्या बनती जा रही है।
शरीर में रहे अम्लयुक्त कचरे को दूर करने के लिये जापान के वैज्ञानिकों ने इस विषय में शोध किया और पाया कि अल्कलाईन पानी नियमित पीने से अम्ल युक्त कचरे की मात्रा में कमी होती है। जिससे आगे जाकर हम बहुत सारी बीमारियों से बच सकते हैं।

5 अभिगम

* अभिगम अर्थात भगवान् के समवशरण मैं या साधु साधवी के उपाश्रय (स्थानक) मैं जाते समय पालने योग्य नियम | ये अभिगम पाँच हैं- *

सचित त्याग अचित रख, उतरासँग कर जोड़ |
एक एकाग्र चित को, झाँझरो को छोड़ ||

1. सचित का त्याग- देव, गुरु के समीप जाते समय इलायची, बीज सहित मुनक्का (बड़ी दाख), छिलके सहित बादाम, पैन, फल, फूल, बीज, अनाज, हरी दातौन, सब्जी आदि सचित वनस्पति, कच्चा पानी, नमक, लालटेन, चालू टार्च, सेल की गाड़ी, मोबाइल फोन आदि साथ नहीं ले जाना I उपरोक्त मे कुछ साथ मे हो तो उनको संत-सती के सम्मुख एवं उपाश्रय मे लेकर नहीं जावें I


2. अचित का विवेक- अभिमान सूचक वस्तुएँ जैसे छत्र, चामर, जूते, लाठी, वाहन, शस्त्र आदि एक तरफ रखकर एवं वस्त्र व्यवस्थित कर देव-गुरु को वंदना करना I भाइयो को सामयिक के लिए महासतीजी व बहिनो के सामने वस्त्र नहीं बदलना चाहिए, किन्तु एक तरफ जाकर वस्त्र बदलना चाहिए I


3.उत्तरासंग- धारण-स्थानकवासी परम्परा के अनुसार उपाश्रय मई संत तथा महासतियों जी विराजमान हो तो बिना मुखवस्त्रीका या रुमाल के प्रवेश नहीं करे I देव, गुरु के समक्ष खुले मुँह नहीं बोले अपितु अनिवार्य रूप से मुखवस्त्रीका या रुमाल का प्रयोग करें I


4. अंजलिकरण- दोनों हाथो को जोड़कर एवं ललाट से लगाकर अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु साधवी जी को विनयपूर्वक भक्ति भाव से वंदना करना I


5. मन की एकाग्रता – गृहकार्य के प्रपंच, पापकरि कार्यो से मन को हटाकर स्थानक मे प्रवेश करना चाहिए एवं देव-गुरु जो जिनवाणी फरमाते है उसे विनम्र भाव से मन की एकाग्रता पूर्वक सुनना I

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