जैनधर्म का महल अहिंसा की नींव पर खड़ा है, अहिंसा जैनधर्म काप्राण है। गृहस्थ तथा मुनियों के लिए जितने भी व्रत-नियम बनाए गए है उनका मूलाधार अहिंसा है। असत्य चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह आदि इसीलिए पाप माने जाते हैं क्योंकि ये हिंसा को प्रोत्साहन देते हैं। आचारांग सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं किसी प्राण, भूत, जीव, सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए इसी की परिपालना करते हुए जैन साधुओं के अहिंसाव्रत का वर्णन अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से किया है अतः इसे सूक्ष्म दृष्टि वाले साधक ही पालन कर सकते हैं।
संमद्दमाणी पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य।
असंजमकरिं णच्चा, तारिसं परिवज्जए।। 29।।
द्विन्द्रियादि प्राणियों को शाली आदि बीजों को और हरितकाय को कुचलती हुई रौंदती हुई तथा साधु के निमित्त अन्य किसी प्रकार का असंयम करती हुई स्त्री यदि साधु को आहार-पानी देने के लिए आए तो साधु उसे वर्ज दे उसके हाथ से आहार-पानी न ले। कारण कि साधु के निमित्त किये गये अन्य असंयमों के कारण असंयम अर्थात् जीव विराधना-साधु को आहार बहराते संयम श्रावक को पूर्ण विवेक की आवश्यकता रखनी चाहिए ‘विवेगो धम्मो’ विवेक में ही धर्म है-यदि श्रावक विवेक रखेगा तो साधु असंयम के दोषों से पूर्ण रुप से बच सकता है नहीं तो असंयम का दोष लगेगा ही इसके अतिरिक्त असंयम की अनुमोदना का भी दोष लगे बिना नहीं रहेगा। साधु कृत, कारित और अनुमोदना तीनों प्रकार के असंयम के त्यागी होते हैं।
श्रमणोपासक-श्रमणोपासिका दोनों को इस बात का पूरा विवेक रखना चाहिए कि साधु भगवन्तों को बहराते हुए, बहराने के लिए आगे बढ़ते समय किसी भी तरह की हिंसा न हो। छह काय के प्रति अनुकम्पाशील ये भगवन्त उनके लिये की गई किंचित् भी हिंसा की अनुमोदना नहीं करते एवं सुपात्रदान अमूल्य अवसर हाथ से चला जाता है। इसलिये भक्ति हो पर विवेकशून्य नहीं हो।