रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-15 (Supatradaan Vivek-15)

णीअदुवारं तमसं, कुट्ठगं परिवज्जए। अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा।।20।।

जिस घर का दरवाजा बहुत नीचा हो, अथवा जिस कोठे में घोर अंधकार हो जहाँ पर नेत्रेन्द्रिय (चक्षुन्द्रिय) कुछ काम न देती हो और जहाँ पर त्रस जीव दिखाई न पड़ते हो, साधु ऐसे घरों को छोड़ दे अर्थात् आहार-पानी लेने के लिए वहाँ न जाएँ। साधु को उपरोक्त प्रकारके मकान इसलिए छोड़ देने चाहिए क्योंकि वहाँ जाने से ईर्या की शुद्धि नहीं हो सकती इसलिए संयम-विराधना होगी तथा स्व-शरीर विराधना का होना भी संभव है मकान की बनावट के अतिरिक्त और किन-किन बातों को देखकर साधु को मकान छोड़ देना चाहिए जैसे कि जिस स्थान पर फूल-बीज बिखरे हुए हो तथा जो स्थान अभी भी लिपा-पोता गया है अतएव गीला हो, उस स्थान को देखकर साधु दूर से ही छोड़ दे।

दर्शन-चक्षुन्द्रिय पर अंधेरे के आवरण पड़ने से मार्ग में भी संशय उत्पन्न होता है। बाहर का रास्ता न मिलने पर कभी गृहस्थ ज्योति (लाईट) का उपयोग कर देवे तो अग्नि की विराधना भी संभव है। अंधेरे में कभी स्थिति का पूरा आकलन न होने पर कभी कोई बैठा हो, बैठी हो आमजन में संशय भी हो सकता है।

इस प्रकार के निषेध का कारण मात्र गमनागमन से संयम की विराधना होती है। अतः इस प्रकार के सभी स्थान साधु के लिए वर्जनीय है साथ ही यहाँ उत्सर्ग-मार्ग प्रतिपादन किया गया है, किन्तु अपवाद-मार्ग से यतना पूर्वक किसी विशेष कारण के वश गीतार्थ साधु की अनुमति ले साधु उक्त स्थानों पर भी जा सकता है।