आचारांग के प्रथम अध्ययन उद्देशक 7 से41, 42 सूत्र में साधु को कैसा पानी ग्रहण करना चाहिये इसके बारे में दिग्दर्शन कराया गया है। साधु को वह पानी ग्रहण करना चाहिए जो शस्त्र परिणित हो गया है और जिसका वण गंध रस बदल गया है। अतः बर्तन आदि का धोया हुआ प्रासुक पानी यदि किसी गृहस्थ के घर में प्राप्त हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार निर्दोष एवं एषणीय प्रासुक जल गृहस्थ की आज्ञा से स्वयं भी ले सकता है इसका तात्पर्य यह है कि यदि कभी गृहस्थ पानी का भरा हुआ बर्तन उठाने में असमर्थ है और वह आज्ञा देता है तो साधु उस प्रासुक एवं एषणीय पानी को स्वयंले सकता है।
धोवन पानी कैसे सहज तैयार होता है-कम से कम 7, 8 बर्तन राख से गीले बर्तन मांझते वक्त विवेक रखते हुए बाल्टील में एकत्रित कर लेना ताकि धोवन पानी का स्वाद बदल जाये। रस का अतिक्रमण हो गया है वर्ण आदि परिणत हो गया है और शस्त्र भी परिणित हो गया है तो ऐसे पानी को प्रासुक जानकर साधु उसे ग्रहण कर ले। वेसे कई तरह से धोवन पानी बताया गया है। 1. आटे के बर्तनों का धोया हुआ पानी, तिलो का धोया हुआ पानी, गरम किया हुआ पानी, उबले हुए चावलों का निकाला हुआ पानी, द्राक्षा का पानी, राख से मांजे हुए बर्तनों का धोया हुआ पानी आदि। धारणा यह है कि राख बर्तन मझने के 24 मिनट बाद ऐसा एकतित्र जल उचित हो जाता है।
इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु शस्त्र परिणत प्रासुक जल ग्रहण कर सकता है यदि निर्दोष बर्तन आदि का धोया हुआ या गर्म पानी प्राप्त होता हो तो साधु उसे स्वीकार कर सकता है। यदि गृहस्थ के घर पर प्रासुक पानी सचित पृथ्वी आदि पर रखा हुआ है या उसमें सचित्त जल मिलाया जा रहा है, या उस सचित्त जल से गीले हाथों से या सचित्त पृथ्वी या रज आदि से भरे हुए हाथों से दे रहा है तो साधु को वह पानी नहीं लेना चाहिये। क्योंकि उससे अन्य जीवों की हिंसा होती है। अतः साधु को वही प्रासुक पानी ग्रहण करना चाहिये जो सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति आदि पर न रखा हो और गृहस्थ भी इन पदार्थों से युक्त न हो। दशवैकालिक सूत्र 5/23 मिश्रित जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिये मिश्रित जल के दो अभिप्राय है। एक तो यह है कि, उष्ण जल बहुत देर का होकर मर्यादासे बहिर्भूत होकर फिर शीत भाव को प्राप्त हो गया हो, अर्थात् सचित्त हो गया हो? दूसरा यह है कि कच्चा जल गर्म होने के लिए अग्नि पर तो रख दिया है परन्तु शीघ्रता या अन्य किसी कारण वश अग्निल का भली-भाँति स्पर्श हुए बिना मंदोष्ण ही उतार लिया गया है। मंदोषण जल न तो सर्वथा सचित्त ही। धोवन पानी के विषय में यह बात है कि ग्राह्य और अग्राह्य का निर्णय ऋतु के अनुसार बुद्धि से विचार करके करना चाहिये।
श्रावकगण अगर यह विवेक रखे कि घर में रहते हुए सचित्त जल पीने का त्याग प्रत्याख्यान कर लेवे तो सहज ही साधु भगवन्तों को अचित्त जल बहराया जा सकता है। एक बार जल अचित्त हो जाता है तो उसमें बार-बार अप्काय के जीवों की उत्पत्ति-मरण की श्रृंखला रुक जाती है और साथ ही जो धोवन पानी, गरम पानी, लौंग का पानी इत्यादि होते हैं वे हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता (प्उउनदम ैलेजमउ) को और बलवती बनाते हैं और सुपात्रदान का सहज सुयोग भी मिलता है।