जैन साधुओं का अहिंसा व्रत की पूर्ण प्रतिज्ञा वाला होता है अतः उसे अपनी प्रत्येक क्रियाओं में सर्वतोव्यापिनी सूक्ष्म दृष्टि से अहिंसक की महत्ती प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए।
जो सांसारिक उपाधियों को छोड़कर विरक्तमुनि हो गये हैं और जिन्होंने पूर्ण अहिंसा की विशाल प्रतिज्ञा ली है, उन्हें बड़ी सावधानी से साधारण से भी साधारण बातों का ध्यान रखते हुए अहिंसा-व्रत की प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। व्रती और फिर वह स्वीकृत व्रत में पालन में असावधानी रखे, यह बात आत्म-पतन की सूचक है।
सिया य समणट्ठाए, गुव्विणी कालमासिणी। उट्ठिया वा निसीइज्जा, निसण्णा वा पुणुट्ठुइ।। 40 ।।
यदि कदाचित् गर्भवती स्त्री, साधु को आहार-पानी देने के लिए खड़ी हुई बैठे और बैठी हुई फिर खड़ी हो तो वह आहार-पानी साधु के लिए अग्राह्य है अतः देने वाली स्त्री से कह दे कि ये आहार-पानी लेना मुझे नहीं कल्पता है।
इस सूत्र में साधु को आहर-पानी के निमित्त उठने-बैठने की क्रिया करने वाली कालमासिनी (पूरे महीने वाली) गर्भवती स्त्री से आहार-पानी लेने का साधु के लिए निषेध किया है, क्योंकि इस प्रकार की क्रियाओं के करने से गर्भस्थ जीव को पीड़ा पहुँचने की संभावना है और पीड़ा पहुँचने से प्रथम अहिंसा महाव्रत दूषित होता है, ग्रन्थकार कहते हैं कि जब गर्भवती (पूर्ण माह वाली) स्त्री खड़े होकर वापस बैठती है तो गर्भस्थ शिशु को ऐसा लगता है कि मानो उसे किसी गहरे कुएँ में धकेल दिया गया है। बैठे से खड़े होने पर उसे बहुत वेदना होती है। साधु सभी जीवों पर अनुकम्पाशील होते हैं। वे गर्भस्थ शिशु, जो पुण्यशालीता पर मानव भव में आया है, उस पर अनुकम्पा के निमित्त उठने-बैठने की क्रिया करने वाली कालमासिनी से आहार नहीं लेते। ऐसी स्त्री बैठे-बैठे भावना भावे, बहरावे तो साधु आहार ले उसे प्रतिलाभित करसकते हैं।