रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-07 (Supatradaan Vivek-07)

समणं माहणं वाणि, किविणं वा वणमिगं।

इवसंकमंत भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए।।

साधु-भिक्षार्थ गाँव में किसी गृहस्थ के यहाँ गया, परन्तु वहाँ क्या देखता है कि घर के आगे द्वार पर श्रमण-बौद्ध आदि भिक्षु, ब्राह्मण, कृपण तथा दरिद्र आदि पुरुषों में से कोई खड़ा हो तो साधु उनको को लाँघकर गोचरी के लिए घर में न जाए और न ही दान देते हुए गृहस्थ के सामने तथा भिक्षुओं के सामने खड़ा हो तो क्या करे? एकान्त स्थान में जहाँ किसी की दृष्टि न पड़ती हो वहाँ जाकर खड़ा हो जाए। लांघकर न जाने और सामने न खड़ा होने का सामान कारण यह है कि ऐसा करने से उन भिक्षुक लोगों के हृदय में द्वेष उत्पन्न होता है उनके हृदय को बड़ी भारी ठेस पहुँचती है। किसी के हृदय को किसी प्रकार की ठेस पहुँचना मुनि-वृत्ति के सर्वथा प्रतिकूल है।

यदि साधु के इस प्रकार से जाने से एक तो साधु की तरफ से याचक और दाता दोनों को अप्रीति होगी। वे अवश्य सोचेंगे कि, यह कैसा भुखमरा साधु है। दूसरे-प्रवचन की लघुता होगी। तीसरे-याचकों के दान के अन्तराय होने का दोष लगता है, क्योंकि भीतर घर में जाने से दातार गृहस्थ तो साधु को दान देने लग जाएगा और वे बेचारे याचक दानाभाव से खिन्नचित्त हो जायेंगे।

साधु भगवन्त गोचरी के समय श्रावक विवेक रखे एवं ऐसे कोई याचक के शीघ्र ही कुछ दे विदा करें, जिससे साधु भगवन्तों को सुपात्रदान से प्रतिलाभित करने की उसकी भावना साकार हो सके।