रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-13 (Supatradaan Vivek-13)

सच्चे श्रावक की पहचान, देंगे हम निर्दोष दान, जिससे बनेगा जीवन महान्।
उद्देसियं कीयगडं, पूडकम्मं च आहडं। अज्झोयर पामिच्चं, मीसजायं विवज्जए।। 55।।

इस सूत्र में इस बात का प्रकाश किया गया है कि साधु को 7 प्रकार का आहार नहीं लेना चाहिए। जैसे कि-
1. केवल साधु के निमित्त बना हुआ आहार,
2. खरीदकर दिया हुआ,
3. आधाकर्मी आहार के स्पर्श से दूषित निर्दोष आहार,
4. सामने लाकर देना,
5. आहार बनाते समयसाधु को स्मृति में रखकर बनाना,
6. निर्बल से छिनकर दिया आहार,
7. अपने व साधु के लिए सम्मिलित रुप से तैयार किया हुआ आहर। इस प्रकार उपर्युक्त लिखे हुए आहार इसलिए नहीं देना चाहिए जिससे साधु की वृत्ति भंग हो जाती और साथ ही जो अहिंसादि महाव्रत ग्रहण किये हुए है, उसमें शिथिलता आ जाती है। आज वर्तमान में शिथिलता को बढ़ावा दिया जा रहा है और साधु भी साता-अनुकूलता को देखते हुए संयम में शिथिल होते जा रहे हैं।

श्रावक का कर्त्तव्य बनता है वह साधु को निर्दोष-आहार देने की वृत्ति बनाये जिससे साधु के संयम जीवन में सहभागिता निभाता हुआ स्वयं भी कर्मों की निर्जरा करता है और उसमें उत्कृष्ट रसायन आये तो तीर्थंकर गोत्र का भी उपार्जन कर सकता है और यहाँ मात्र आहार का ही उल्लेख किया गया है इसके साथ हम अन्य वस्तु या जो कि हम साधु के निमित्त खरीदकर नहीं दे सहज रुप से जो भी वस्तु निर्दोष मिल जाये उसे बहराकर लाभ प्राप्त करें। वो पदार्थ को भी ले सकते है जहाँ पर साधु भी अपने इच्छानुसार किसी भी वस्तु की माँग कर सकते है लेकिन सच्चे श्रावक का कर्त्तव्य तो यही बनता है कि वह इस प्रकार स्थिति में भी नम्र शब्दों में साधु को अपने संयम जीवन का भान कराते हुए उन्हें हम महाव्रतों में स्थिर कर आगम शब्द अम्मा-पिया सूक्ति को सार्थक कर, सच्चे व अच्छे श्रावक धर्म का निर्वाहन करे।

सच्चे श्रावक की पहचान, नहीं दे हम दोष पूर्ण आहार दान
देवे हम निर्दोष दान, जिससे बने जीवन महान्।

साधु-साध्वी जी के जीवन में श्रावक-श्राविकाओं का बहुत सहकार होता है, लेकिर साधु उन्हें किसी भी प्रकार का अविवेक या अकरणीय कार्य की प्रेरणा नहीं देता है। उन्हें भी चाहिए कि वे साधु के निमित्त कोई ऐसा कार्य ना करे जिससे कि उन्हें संयम में दोष लगे। साधु के एषणा के 47 दोषों में कीयगड दोष गृहस्थों के निमित्त लगता है।

साधु, श्रावक का जोड़ा अल्पावधि का नहीं होता है। सहजता से अपने लिये बनाये गये या अपनी वस्तु का जब वह संविभाग (साधु भगवन्तों को प्रदान कर लाभ लेता है) तो उसे मन में बहुत शांति, संतोष की अनुभूति होती है, साथ ही साथ यह वृत्ति दीर्घकाल तक भी चलती है। अन्यथा श्रावकों में भी एवं कभी-कभी स्वयं के मन में भी साधुओं के अप्रीति का भाव हो जाता है। अतः अपने जीवन को नियमित करते हुए उचितकाल पर श्रावक भावना भावे तो वह सुपात्रदान के इस अमूल्य अवसर का लाभ उठा सकता है। श्रावक को अपनी जीवन चर्या ही इस भाँति कर देनी चाहिये कि साधु भगवन्तों को सहज आहार बहराया जाये। घर में किसी न किसी के रात्रि भोजन का त्याग भी इस ओर आगे बढ़ने का एक कदम है।