रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-27 (Supatradaan Vivek-27)

मुनि जीवन में भी गमनागमन की प्रवृत्ति अपरिहार्य है, अतएव सर्वप्रथम शास्त्रकार यह निर्देश करते हैं कि मुमुक्षु को किस प्रकार चलना चाहिए और किस प्रकार चलता हुआ मुनि प्रवृत्ति करता हुआ भी पाप का भागी नहीं बनता है?

गति संबंधी सावधानी, यतना पूर्वक उपयोग मय प्रवृत्ति को ईर्या समिति कहते हैं।

शास्त्रकारों ने मुनि की गमन प्रवृत्ति को अहिंसक बनाये रखने के लिए ईया समिति से संबंधित विविध नियमों का निर्देश किया है। उनका यहाँ संक्षिप्त में उल्लेख करना उपयोगी होगा। त्रस-स्थावर जीवों को अभयदान देने में दीक्षित मुनि आवश्यक प्रयोजन होने पर जीवों की रक्षा के लिए तथा स्व-शरीर रक्षार्थ युगमात्र युग का अर्थ चार हाथ प्रमाण है। जिनदास महत्तर ने ‘‘युग’’ का अर्थ शरीर किया है।

युग का लौकिक अर्थ गाड़ी का जुआ है, जो लगभग 4 हाथ का होता है। मनुष्य का शरीर भी अपने चार हाथ का होता है। जमीन आगे देखता हुआ उपयोग पूर्वक चले। यदि चलते समय दृष्टि को बहुत दूर डाला जाये तो सूक्ष्म शरीर वाले जीव देखे नहीं जा सकते और उसे अत्यन्त निकट रखा जाए तो सहसा पैर के नीचे आने वाले जीवों को टाला नहीं जा सकता, इसलिए 4 हाथ प्रमाण देखकर चलने की व्यवस्था की गई है। ईर्या समिति की शुद्धि के लिए शास्त्रकार ने चार प्रकार की शुद्धियों का निरुपण किया है जैसे आलबणेण कालेण…हरियं रिए (उत्तराध्ययन सूत्र 24/4) आलम्बन शुद्धि, काल, मार्ग, यतना शुद्धि इन चार शुद्धियों का ध्यान रखते हुए मुनिको चलना चाहिए।

दोहा-      नीचे जोया गुण गणा, जीव जन्तु टल जाय। ठोकर की लागे नहीं, पड़ी वस्तु मिल जाय।।

अन्य कर्मों में मन के व्यक्त रहने से सम्यक् यतना नहीं हो सकती, अतएव मार्ग में चलते समय ये दस कार्य नहीं करने चाहिये-

1. शब्द-वार्तालाप न करे, राग-रागिनी न सुनावे, न सुने।
2. रुप-रमणीय वस्तुएँ खेल, तमाशे, श्रृंगार आदि न देखे।
3. गंध-सुगन्धित वस्तुओं को न सूंघे।
4. रस-रसों का आस्वाद न करे।
5. स्पर्श-शीत उष्ण या मृदु कर्कश आदि स्पर्शों में चित्त न लगावे।
6. वाचन-पठन न करे।
7. पृच्छा-पृच्छा, प्रश्न न करे।
8. परिवर्तना-पढ़े हुए की आवृत्ति न करे।
9. अनुप्रेक्षा-चिंतन न करे।
10. धर्मकथा-उपदेश न दे।

दशवैकालिक सूत्र के 5वें अध्ययन की 4/7/65वीं गाथा में बताया है कि-

ओवायं विसमं खाणुं, विज्जलं परिवज्जए। संकमेण ण गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे ।। 4 ।।
इंगालं छारियं रासिं, तुसरासि च गोमयं। ससरक्खेहिं पाएहिं, संजरो तं णइक्कमे।।7।।
हुज्ज कट्ठं सिलं वा वि, इट्ठालं वा वि एगया। ठवियं संकमट्ठाए, तं च होज्ज चलाचलं।।65।।

प्रस्तुत गाथा में आत्म विराधना एवं संयम विराधना दोनों का दिग्दर्शन कराया गया है कि युग मात्र। साधु शरीर प्रमाण अर्थातथि अपने हाथ से 4 हाथ प्रमाण आगे की भूमि को देखता हुआ बीज, हरी, त्रस जीव आदि को देखकर चले। इसी को शकट का जुड़ा (जूला) प्रमाण भी कहते हैं। साधु साढ़े तीन हस्त प्रमाण अथवा शकट (बैलगाड़ी) जुड़े प्रमाण आगे सिर्फ पृथ्वी को ही देखता हुआ चले किन्तु साथ में बीज, हरी छःकाया आदि की व कांटा आदि अजीव पदार्थों की यतना करता हुआ गमन करे (चले) पृथ्वी आदि को देखता हुआ चले इसका सारांश यह है कि चलते समय प्रमाण पूर्वक भूमि को देखता हुआ अन्य दिशा आदि का व मार्ग में रहे हुए मकान, दुकान, झरोखा, उद्यान, क्रीडा के मैदान की और अपनी दृष्टि को घूमाता हुआ हर्ष या शोक, ऊँचे-नीचे, आकुल-व्याकुल, दीन-हीन भावों के साथ व ऐसे ही अन्य पदार्थों का अवलोकन करते हुए नहीं चले, उपरोक्त बातों का विवेक पूर्वक गमन करे। इतना ही नहीं। किन्तु पाँचों इन्द्रियों के विषय में अपने मन को हटाकर राग-द्वेष से रहित होकर गमन करे।

अतः अहिंसा के आराधक मुनि को ईर्या समिति की चारों शुद्धियों का पालन करते हुए गमनागमन में संयत एवं नियमित प्रवृत्ति करनी चाहिए। श्रमणोपासक को जब भी साधु भगवन्तों के साथ गोचरी में जाने का अवसर मिले ऐसे समय में वह संक्षिप्त में अपनी बात रखें। साधु भगवन्त चलते समय प्रायः मौन रहते हैं, बार-बार बातचीत करने की चेष्टा न करते हुए इनकी ईर्या समिति ऐषणा में सहायक बने।

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