रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-01 (Supatradaan Vivek-01)

जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है किसी भी जीव की किसी भी प्रकार से हिंसा न हो उसका साधक विशेष रुप से ध्यान रखता है। आहारादि लेते समय छह काय की विराधना का यदि कोई प्रसंग गृहस्थ के द्वारा किया जा रहा है तो साधु वहाँ से आहारादि नहीं लेते। गोचरी, पानी के लिए घर में साधु का प्रवेश करने पर कच्चे पानी के गृहस्थ को हाथ आदि नहीं धोना चाहिये।

पुरकम्मेण हत्थेण……………….।।32।।

साधु को आहार-पानी देने से पहले ही सचित्त अप्रासुक जल से धोए हुए हाथ से आहार-पानी देने वाली स्त्री/पुरुष के हाथ से आहार-पानी नहीं लेवे। गाथा में पुरेक्कमेण ‘पुरःकर्मणा’ पद जैनागम का एक पारिभाषित शब्द है इसका अर्थ साधु को आहार पानी देने से पहले यदि सचित जल से हाथ आदि धो लिए हो, यह है। यदि यह क्रिया श्राविका ने घर पर साधु के पहुँचने से पहले ही कर रखी हो और साधु को किसी निमित्त से उसका पता लग गया हो, तब भी उस साधु को उसका परित्याग कर देना चाहिये। नहीं तो अनुमोदना, असंयम की क्रिया और दुष्प्रवृति की वृद्धि का दोष साधु को लगेगा।

साधु को दिये जाने वाले आहार-पानी का यदि किसी सचित्त पदार्थ से स्पर्श भी हो जाये तो भी साधु उसे ग्रहण नहीं करता है।

हाथों से पानी के बिन्दु गिरते हो तो उसे उदकार्द्र कहते हैं यदि केवल हाथ गीले ही हो तब उसका नाम ‘स्निग्ध’ हाथ है। सचित्त पदार्थों के संस्पर्श से आहार-पानी ग्रहण करने से उक्त जीवों की विराधना की अनुमोदना लगती है। इस गाथा के कथन करने का सारांश यह है कि जिसमें पश्चात् कर्म लगे उस प्रकार के आहार को भी ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से हिंसादि अनेक दोषों के लगने की संभावना की जा सकेगी। शास्त्रकारों ने पश्चात् कर्म के बारे में भी कहा पच्चकम्मं जहि भवे पश्चात् कर्म का दिग्दर्शन कराया है जैसे कि अन्नादि से हाथ लिप्त हो तथा कड़छी व भाजनादि से आहार ग्रहण न करे, क्योंकि जब वह साधु के निमित्त रखकर सचित्त जल से भाजनादि धो रहा है तब साधु को पश्चात् कर्म नामक दोष लगता है। इसलिए इस प्रकार के आहार का साधु परित्याग कर दे। यदि साधु इस प्रकार के दोष लगने के निश्चय हो जाने पर भी आहार ले ही लेता है, तब उसकी आत्मा उन जीवों की रक्षा के स्थान पर प्रत्युत उनके वध-क्रियाओं के अनुमोदन करने वाली बन जाती है। अतः इस प्रकार का आहार साधु को नहीं बहराना चाहिए एवं साधु को भी नहीं लेना चाहिए। अतः साधु के नवकोटि प्रत्याख्यान है, तब उसकी प्रत्येक पदार्थ की और अत्यन्त विवेक रखने की आवश्यकता है। तभी दोषों से बच सकता है।

प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है यदि साधु गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय यह देखे कि गृहपति या उसकी पत्नी या परिवार जन भोजन कर रहे हैं तो वह उसे यदि वह गृहपति या उसका पुत्र है तो हे आयुष्मान! ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता या यदि गृहस्थ ने साधु को आहार देने के लिए सचित्त जल से हाथ नहीं धोये हैं, परन्तु अपने कार्यवश उसने हाथ धोये है और अब वह उन गीले हाथों से या गीले पात्र से आहार दे रहा है तब भी साधु को उस आहार को ग्रहण नहीं करे। श्रमण साधु, श्रावक-श्राविकाओं की आहारादि देने की भावना के आधार पर ही गोचरी आदि पदार्थ ग्रहण करने वाला होता है। साधु छह काय जीवों को साता ही उपजाने का अभिलाषी होता है। ऐसी उत्कृष्ट श्रमणचर्या की पालना से ही श्रावक-श्राविका गण उनके प्रति श्रद्धा से अभिषिक्त रहते हैं।

श्रावक यह विवेक रखें कि आहार बहराते समय कोई भी पदार्थ हथेली पर, हाथ पर रहने से चिपचिपाहट हो रही है तो अचित्त जल से ऐसे स्थान पर धोवे जिससे कि पानी नाली इत्यादि में न जावे और वही सूख जावे तथा कीड़ियाँ (चींटी) इत्यादि भी न आवे।