रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-02 (Supatradaan Vivek-02)

घरबार, कुटुम्ब-परिवार को छोड़कर अनगार बने हुए अहिंसक और अकिंचन श्रमण निर्ग्रन्थ के सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि वह अपनी प्रतिज्ञाओं को पालते हुए जीवन निर्वाह की अपिहकार्य अन्न पान्नादि की उपलब्धि किस प्रकार से करे? जब तक मुनि के साथ शरीर लगा हुआ है तब तक उसे आहारादि सामग्री देना अपरिहार्य होता है, क्योंकि आहारादि के अभाव में शरीर की स्थिति नहीं बनती और शरीर की स्थिति के अभाव में ज्ञान-ध्यान आदि आराधना संभव ही नहीं है। इसलिए तीर्थंकर देवों ने इस समस्या का निदान और समाधान बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विस्तारपूर्वक किया है। सचित्त पदार्थ साधुओं के लिए सर्वथा निषेध बताया है। दशवैकालिक सूत्र अध्ययन 5 की गाथा में कहा है-

कंद मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं च सन्निरं।
तुंबागं सिगबेरं च, आमगं परिवज्जए ।। 70 ।।

इस सूत्र में यह कथन है कि-भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर पर गए हुए साधु को यदि कोई कोई साधुओं के आचार-विचार को न जानने वाला गृहस्थ, कच्चे सचित एवं छिन्न-भिन्न किये हुए कंद-मूल फल आदि वनस्पति पदार्थ देवे तो साधु कभी भी ग्रहण न करे। अब प्रश्न खड़ा होता है ऐसे पदार्थ क्यों नहीं ग्रहण करें? क्या हानि हैं?

इसका उत्तर संक्षिप्त शब्दों में यह है कि ये सब पदार्थ अपने-अपने स्वरुप से संख्यात, असंख्यात और अनन्त जीवों के समूह रुप होने से बिना किसी ननु-नच के सचित्त है अतः साधुओं को प्रथम अहिंसा महाव्रत की पूर्णरुपेण रक्षा के लिए उक्त कच्चे पदार्थ अपने खान-पान आदि के प्रयोग में कदापि नहीं लेने चाहिये। सचित्त वनस्पति साधुओं के लिए सर्वथा अभक्ष्य है। साधु जब साधु वृत्ति धारण करता है तब प्रथम अहिंसा महाव्रत धारण करते हुए तीन करण और तीन योग से त्रस-स्थावर सभी जीवों की सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करता है। मुनि भोजन के लिए जीववध न करे, न करवाएऔर न करने वाले का अनुमोदन करे, न मोल ले, न मोल लिवाए, न मोल लेने वाले का अनुमोदन करे तथा न पकाए, न पकवाएँ और न पकाने वाले का अनुमोदन करे। इन नवकोटियों से विशुद्ध और अन्नादि ही मुनि के लिए विधि-विधान के अनुसार ग्राह्य होते हैं। सचित्त पदार्थ आदि ग्राह्य नहीं होते हैं। अब हमें थोड़ी यह जानकारी ले लेनी चाहिए सचित्त क्या है अचित्त क्या है?

इसलिये श्रमणोपासक (श्रावक) विवेक रखे कि अपने लिये बनाये आहार में से ही वह संविभाग करे। जब वह स्वयं के लिए खाना बनाता है तो अग्नि शस्त्र इत्यादि वह सचित्त यानी जीव रहित हो जाता है। वह इसमें से साधु को बहराने चाहे तो महान् पुण्यशाली का अर्जन करता है। इसमें मुख्य बात यह है कि बीज रहित होना चाहिये। बीज होता है तो जीव है और सजीवता से और भी जीव उत्पन्न हो सकने का सामर्थ्य होता है। अतः साधुजी ग्रहण नहीं करते। श्रावक त्रस जीव की हिंसा का त्यागी होता है एवं स्थावर की हिंसा की मर्यादा होती है। इस मर्यादा तहत वह अपना भोजन अग्नि इत्यादि का प्रयोग कर बनाता है एवं भोजन सचित्त से अचित्त हो जाता है। फिर अगर भावना भाता है तो महान् पुण्यशालीता अर्जग्न करता है।