रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-05 (Supatradaan Vivek-05)

विवेक पूर्वक देना है आहार इससे ही होता है जीव उदार

यहीं है कर्मों की निर्जरा का आधार?

आहार-पानी देने वाला व्यक्ति असावधानी पूर्वक आहार दे रहा हो तो-

आहरंत सिया तत्थ, परिसडिज्ज भोयणं।

दिंतियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पइ तारिसं ।। 28 ।।

देने वाला दाता (स्त्री) कदाचित् इधर-उधर गिराती हुई साधु को भोजन दे तो उसे साधु यह कह दे कि-‘यह भोजन मुझे नहीं कल्पता है’।

इस गाथा में आहार लेने की विधि का विधान किया गया है। जैसे कि-जब साधु गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाए तब भोजन तथा पानी स्त्री देने लगे वह स्त्री यदि उस भोजन कोदेते समय इधर-उधर गिराती हो तो साधु उससे कह दे कि-‘‘हे भगिनि! इस प्रकार का गिरता हुआ पानी मुझे नहीं लेना है क्योंकि गिरता हुआ बहराना है तो अयतना होती है, जीवों की विराधना होने की संभावना हो सकती। इस प्रकार का आहार-पानी साधु-संतों को नहीं बहराना चाहिए।

श्रावक विवेकशील ही होता है फिर श्रावक की सरल प्रायश्चित्त, यतना विवेक का ही पर्यायवाची है। विवेक मोक्ष देने वाला है, विवेक पापों का नाश करने वाला है। विवेक सम्यक्त्व की निर्मलता एवं चारित्र की निर्दोषता का कारण है। विवेक पूर्वक सांसारिक कार्य करते हुए व्यक्ति अल्प कर्मों का बंध करता है। विवेक पूर्वक कार्य करने से व्यक्ति अनर्थ दण्ड से बच जाता है। यदि बहने रसोई बनाते समय रसोई कार्य में यतना रखे और बहराते वक्त यतना रखे तो अनेक पापों से बच सकती है। दशवैकालिक सूत्र में कहा है-

जयं चरे जयं चिट्ठे, जायामासे जयं सए। जयं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ।। 8 ।। चाहो कर्मों का क्षय तो पहले धारो विनय

श्रमणोपासक बैठकर ही बहराने का ध्यान रखे। बैठकर बहराने में तनिक भी संकोच नहीं करे। साधु भगवन्त पधारे तो सात-आठ कदम आगे जाकर अभिवादन करें वन्दना करे। प्रफुल्लित होना चाहिये, पर बहराते समय साधु भगवन्त खड़े हो तो बैठकर बहराने में ज्यादा यतना रहती है। खड़े-खड़े बहराने में कभी घुटने के ऊपर से कोई चीज पातरे के बाहर भी गिर गई तो पूरा घर असूझता हो जाता है, फिर साधु भगवन्त पूरे दिन उस घर से कुछ भी ग्रहण नहीं करते। ऐसी घोर अन्तराय लगती है। अतः घुटने के बल बैठकर या कभी सुखाआसन (आलकथी-पालकथी) के रुप में बैठकर बहराने का विवेक श्रावकों को लेना चाहिये।