रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-10 (Supatradaan Vivek-10)

प्रभु महावीर ने अपने अप्रतिहत केवलज्ञान में अहिंसा भगवती को देखा, जो सब सुखों को देने वाली है, प्राणीमात्र से आत्मीयता के भाव सृजन करने वाली है। संसार में छोटे-बड़े जितने भी प्राणी हैं सभी की रक्षा करो, किसी को भी दुःख मत उपजाओ श्रावक की अहिंसा में अपूर्णता और साधु की अहिंसा में पूर्णता है। साधु-वर्ग की अहिंसा की पूर्णता के लिए ही भगवान ने साधुओं को आधारकर्म और औदेशिक आदि हिंसा जनित आहारों के त्याग का बड़े महत्त्वपूर्ण शब्दों में बार-बार उपदेश किया है। संक्षिप्त शब्दों में अहिंसा की सुखों को देने वाली है अतः साधुओं का कर्त्तव्य है कि, वे इस अहिंसा का पालन बड़ी यतना और सावधानी से करें।

दशवैकालिक सूत्र अध्ययन 3 की गाथा 2 में साधु के अनाचीर्ण पदार्थ का वर्णन किया गया है अर्थात् जो पदार्थ मुनि के सेवन करने के योग्य नहीं है, उन पदार्थों का वर्णन किया गया है। उनमें एक अनाचीर्ण बताया-‘उदेसियं’ औद्देशिक साधु के निमित्त कोई भी काम किया जाए-आरंभ, सरंभ और समारंभ के बिना नहीं हो सकता। ये तीनों जहाँ होती है वहाँ हिंसा का होना स्वाभाविक है। साधु को निमित्त रखकर यदि भोजन तैयार कराया जाए और उसका पता उस साधु को लग जाये और फिर उस आहार को वह साधु ग्रहण कर ले तो उस भोजन के बनाने में आरंभ आदि जो हिंसा हुई थी, उसका वह निमित्त (भागी) अवश्य होगा, क्योंकि साधु की उसमें अनुमोदना हो गई। न मालूम हो और वह उस आहार को ले ले तो उसमें वह पाप का भागीदार नहीं होगा।

दो प्रकार के आहार है-सावद्य और निवरद्य।

निवरद्य-जिसके ग्रहण करने में साधु के व्रतों में रंचमात्र भी दोष न लगनेपाप ऐसी आहार को निवरद्य आहार कहते हैं और सावद्य-जिसके ग्रहण करने में उनके व्रतों में दोष लगे उसे सावद्य आहार कहते हैं। दशवैकालिक सूत्र के अध्ययन 10 की गाथा में कहा है-

वहणं तसणावराण होइ, पुढवी तणकट्ठनिस्सियाणं। तम्हा उद्देसियं न भुंजे, णोवि पए न पयावए जे स भिक्खू।। 4 ।।

इस काव्य में इस बात का प्रकाश किया गया है कि औद्देशिक आदि के परित्याग से त्रस और स्थावर जीवों को भली-भाँति रक्षण होता है। साधु का नाम रखकर जब आहार तैयार किया जाएगा, तब भूमि, तृण और काष्ठ आदि के आश्रय से रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध हो जायेगा। अतः उपरोक्त जीवों की रक्षा के लिए मुनि औद्देशिक-आधारकर्मी (किसी एक साधुजी के निमित्त) आदि आहारादि (असन, पान खादिम, स्वादिम वस्त्र इत्यादि) का आसेवन न करे कारण कि आहार की विशुद्धता पर ही भिक्षु की विशुद्धता है। यह सर्वमान्य बात है कि जैसा आहार होता है, वैसा मन होता है और जैसा मन होता है, वैसा ही आचरण होता है। हिंसाजन्य आहार, हिंसा वृत्ति जागृत कर, साधु को वास्तविक पथ से पराड्मुख कर देता है।