रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-12 (Supatradaan Vivek-12)

एक पदार्थ को भोगने वाले है दो तो एक-दूसरे की भावना देखकर दान दो।

संसट्ठेण य हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ।। 36 ।।
दुण्हं तु भंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए। दिज्जमाणं ण इज्जिमाणं, छंदं से पडिलेहए ।। 37 ।।

अहिंसा प्रेम की पराकाष्ठ है यदि एक पदार्थ को दो व्यक्ति भोगने वाला हो; तब उनमें से यदि एक व्यक्ति को निमंत्रण करे, तब साधु न देने वाले व्यक्ति का अभिप्रायः अवश्य देखे।

निम्न गाथा में साधारण पदार्थों के ग्रहण करने की विधि का विधान किया गया है जैसे कि-एक पदार्थको दो जने भोगने वाला हो, उन दोनों में से एक व्यक्ति भक्ति पूर्वक साधु को किसी पदार्थ के लिए निमंत्रित करे तब साधु जो दूसरा व्यक्ति हो उसकी भावना को देखे, क्योंकि कहीं ऐसा न हो जाए कि यदि साधु दूसरे की बिना भावना कोई वस्तु ले ले, तब उन दोनों का परस्पर झगड़ा उत्पन्न हो जाए; उनका परस्पर वैमनस्य भाव उत्पन्न हो जाए जिससे वह एक-दूसरे की निंदा करने लग जाएँ। कभी नहीं देने वाले के मन, दूसरे के द्वारा जबरदस्ती किये जाने पर निर्ग्रन्थ मुनिराजों एवं जिनशासन पर अश्रद्धा के भाव हो सकते हैं इसलिये ऐसी स्थिति में एक-दूसरे की भावना के बिना ग्रहण नहीं करे। कब ग्रहण करना चाहिये तो आगे की गाथा में कहा-

दुण्हं तु भंजमाणाणं, दो वि तत्थ निमंतए। दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ।। 38 ।।

दोनों ही व्यक्ति निमंत्रित करके फिर ग्रहण करना चाहिए या नहीं? यदि दोनों ही व्यक्ति प्रेमपूर्वक भक्ति भावना से निमंत्रित करे तो फिर ग्रहण करे ले; क्योंकि दोनों व्यक्तियों का सम्मिलित रुप से सप्रेम निमंत्रित हो जाने पर फिर वैमनस्य आदि दोषों के उत्पन्न होने की कोई आशंका नहीं रहती।

5 समिति 3 गुप्ति में 16 उद्गम के अणिसिट्ठे दोष बताया है। जिसका तात्पर्य है दो के शामिल की वस्तु एक-दूसरे के बिना आज्ञा के देवे तो अनिःसृष्ठ दोष निर्दोष संयम का पालन करते हुए इन दोषों से बचना बताया है।

श्रावकों को चाहिए कि साथ बैठने वालों को संतों के प्रति श्रद्धावान होने की प्रेरणा देवें। संतों के बहराने का प्रतिफल बता सुपात्रदान देने की भावनाएँ पुष्ट करें।

सुपात्रदान का यह कार्य है इतना महान, बना देगा आपको भगवान।