रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-16 (Supatradaan Vivek-16)

साधु की वृत्ति, प्रवृत्ति एवं कृति निर्दोष कल्याणकारी होती है।

एलगं दारगं साणं, वच्छगं वा वि कोट्ठए। उल्लंघिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए।। 22।।

भिक्षार्थ जाता हुआ साधु गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय घर के प्रवेश द्वार पर यदि गाय, गाय का बछड़ा, बकरा, कुत्ता या बालक अथवा अन्य कोई पशु हो तो उन्हें हटाकर या लांघकर गृह में प्रवेश करे तो सम्भव है उसमें किसी को भी तकलीफ हो सकती है या फिर स्वयं को भी किसी प्रकार की शारीरिक हानि हो सकती है। इसलिए आत्म विराधना तथा पर विराधना से बचे रहने के लिए साधु को उस घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए अथवा दीन-हीन व्यक्ति (अपंग, भिखारी) आदि ऐसे व्यक्ति को भी हटाकर नहीं जाए उनको हटाकर जाने से उन लोगों के मन में भी द्वेष भाव, क्रोध भाव अथवा अन्य किसी प्रकार के भाव उत्पन्न हो सकते हैं साथ ही अंतराय कर्म का बंध होने की भी संभावना हो सकती है। अतः साधु की ऐसी सुंदरवृत्ति हो जिससे किसी भी प्राणी को दुःख, तकलीफ, पीड़ा न हो इसका पहले ध्यान रखना है जैसे भ्रमर अन्य अनेक फूलों पर जाकर अपने आप तृप्त कर लेता है वैसे ही साधु भी किसी प्राणी को पीड़ा न हो इसका ख्याल रखते हुए अपने संयम का निर्वाहन करता है।

श्रावक (श्रमणोपासक) इस बात का ध्यान रखें कि जब साधु भगवन्त की गोचरी का समय हो तो याचक, गाय-पशु इत्यादि को यथाशीघ्र कुछ देकर विदा करे जिससे कि उनका भी सहज पोषण हो जाए एवं साधु भगवन्त सीधे ना निकल जावे। पशु को मार्ग से हटा विवेक से एक ओर स्थान दे देंवे।