रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-18 (Supatradaan Vivek-18)

साधु-साध्वियों को निर्दोष शय्या देकर जो तिरने वाला है वह शय्यातर कहलाता है यहाँ शय्या का अर्थ मकान से लिया गया है। अर्थात् दशाश्रुत स्कंधसूत्र द्वितीय दशा में 21 शबल दोष मेंसे 11वाँ शबल दोष बताया है-
सागरिय पिडं भुंजमाणे सबले।

आश्रयदाता के आहार को भोगने सेशबल दोष लगता है साधु जिस घर में ठहरे उसे उपाश्रय या शय्या कहते हैं। सूत्र में बताया गया है कि साधु जिस गृहस्थ के स्थान पर ठहरे प्रतिक्रमण करने के बाद शय्यातर कहा गया है। अर्थात् जितने दिन उसके घर में ठहरे उसके घर से आहार-पानी आदि ग्रहण न करे; क्योंकि ऐसा करने से उसकी (आश्रयदाता) श्रद्धा भक्ति विशेष हो सकती है। यदि आश्रयदाता के घर से ही आहारादि पदार्थ भी लिया जावे तो संभव है कि स्थान देने के लिए भी उसके भावों में परिवर्तन आ जावे; अतः शास्त्रकारों ने उसके घर के तथा उससे किसी प्रकार भी सम्बन्ध रखने वाले पदार्थों के लेने का निषेध कर दिया है।

यह प्रश्न हो सकता है कि जिस व्यक्ति में भक्ति-भाव नहीं उससे न लेना ठीक है किन्तु जो भक्ति पूर्वक समर्पण करता है उससे लेने में क्या हानि है? समाधान में कहा जाता है कि नियम सबके लिए एक होता है और उसका सर्वत्र एक-सा पालन होना चाहिये। यदि एक से लिया जाए और दूसरे से न लिया जाए तो गृहस्थों में परस्पर वैमनस्य होने का भय है। दूसरे साधुओं के चित्त भी कई प्रकार के संकल्प-विकल्पों से आक्रान्त रहेंगे। जैसे किसी धनिक के घर पर ठहरे साधु के चित्त में विचार आ सकता है धनी होने पर भी अमुक व्यक्ति ने भोजन के लिए निमंत्रित न किया। क्या हुआ यदि हम उसके घर ठहर गये इत्यादि अनेक भावों से चित्त में राग और द्वेष की विशेष उत्पत्ति होने की संभावना रहती है। अतः आश्रयदाता के घर से आहार न लेना ही अच्छा है यही त्रिकाल-हितकारी वीतराग भगवान की वाणी है।

अतः आहार पानी आदि के दान की अपेक्षा से शय्यातर का दान श्रेष्ठ है। आहारादि देते समय तो सीमित लाभ मिलता है लेकिन शय्यातर को तो जितने समय तक संत-सती वहाँ ठहरते हैं उतने समय का लाभ मिलता है।

श्रावक संत भगवन्त के घर में आने के पश्चात् एवं साधु भगवन्त के प्रतिक्रमण के पूर्व आहारादि की भावना भा सकता है एवं अवसर आवे तो सुपात्रदान का लाभ ले सकता है। तत्त्व केवली गम्य।