रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-21 (Supatradaan Vivek-21)

साणी पावार पिहियं, अप्पणा नावपंगुरे।
कवाडं नो पणुल्लिज्जा, उग्गहंसि भजाइया।।18।।

सन की बनी हुई चिक से अथवा कपड़े से ढ़ंके हुए द्वार को गृहपति की आज्ञाके बिना साधु अपने हाथ से न खोले। गृहपति की आज्ञा के बिना साधु किसी द्वार आदि आवरण को इसलिए न खोले कि न जाने गृहस्थी की कौन-सी क्रिया हो रही हो? गृहस्थ उसे बतलाना न चाहता हो या वह क्रिया इनके बतलने योग्य न हो। ऐसे में यदि मुनि अचानक उसके यहाँ पहुँच जाएगा तो घर वालों को क्रोधादि उत्पन्न होने की संभावना है।

यूँ साधु भगवन्त बहुत शांति के घर में प्रवेश करते हैं जिससे सुस्ता-असुस्ता इत्यादि का भान हो जावे एवं निर्दोष गोचरी ली जावे। फिर भी सन (पर्दा) लगे होने से कभी मन में संशय हो तो साधु भगवन्त वापस चले जाते हैं। संशय कभी इस बात का भी हो सकता है कि परिवाजन किस मुद्रा में बैठे हो। इसलिए सुज्ञ श्रावकगण सन (पर्दे) का उपयोग बड़े विवेकपूर्ण तरीके से करे या गोचरी के समय ऐसी परिस्थिति को टाला जावे। मुख्य बात संत भगवन्तों के विवेक की है सब परिस्थिति देख उन्हें लगता है कि दाता की सुपात्र दान की प्रबल भावना है तो वे विवेक से समयोचित निर्णय ले सकते हैं।

इस गाथा में शास्त्रकर्ता ने उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों मार्गों का दिग्दर्शन करा दिया है। समय को जानने वाले विवेकशील साधु जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखकर वैसा ही व्यवहार करे और जो क्रिया करे, उसमें उत्सर्ग-मार्ग या अपवाद मार्ग का आश्रय वे अवश्य ले सकते हैं।