रत्नसंघ

Menu Close
Menu Close

सुपात्रदान विवेक-23 (Supatradaan Vivek-23)

रण्णो गिहवईणं……………दूरओ परिवज्जए।।6।।

राजा, नगर सेठ, कोतवाल आदि के गुप्त वार्तालापदि करने के स्थानों को और दुःखदायी स्थानों को साधु दूर से ही छोड़ दे।
उक्त स्थानों को साधु के बार-बार अथवा विशेष रुप से जाने पर निषेध है। शास्त्रकारों और भी कुछ स्थान गिनाते हैं, जैसे-प्रकाश, देखना, विशेष रुप से देखना, समान भू भाग, झरोखा, संसार, रुपी पदार्थ ये सात अर्थ होते हैं।

पिण्डैषणादि के लिए गमन करता हुआ साधु, उक्त स्थानों को दूर से ही इसलिए छोड़ दे क्योंकि उक्त स्थानों में गमन करने से शासन की लघुता तथा आत्म-विराधना होने की संभावना है। यहाँ यदि यह शंका की जाए कि गमन करते हु ए साधु को यदि इन स्थानों का पता ही न लगे और वह भूल से वहाँ तक पहुँच जाये तो फिर वह क्या करें? इसका समाधान यह है कि यदि भूल से कदाचित् ऐसा हो जाए तो साधु को वहाँ बिल्कुल खड़ा न होना चाहिए अथवा जिस प्रकार से उन लोगोंके अन्तःकरण में किसी प्रकार की शंका उत्पन्न न हो सके, उस प्रकार से साधु को वर्तना चाहिये, क्योंकि शंका के उत्पन्न हो जाने से कई प्रकार की आपत्तियों के उत्पन्न होने की प्रबल संभावना होती है। घर पर पहुँच जाने के बाद साधु को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

कभी शंका मन में आ सकती है कि पहले एवं अंतिम तीर्थंकर के साधु राजपिण्ड लेते ही नहीं है तो राजा की बात यहाँ क्यों आई। वर्णन इसलिये हो सकता है कि कभी राजा, सेठ, मंत्री के यहाँ भी आ सकते हैं। ऐसे समय में कोई मंत्रणा चल रही हो तो साधु भगवन्त वहाँ न जाये। इसका कारण यह भी है कि साधु भगवन्त विभिन्न देश में जाते हैं कभी कोई गुप्तचरी जैसा अनर्गल आरोप लगा देवें तो जिनशासन की हीलना होती है।