रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-24 (Supatradaan Vivek-24)

जिनशासन महान् है यहाँ प्रत्येक प्राणी को ज्ञान-दर्शनादि की अपेक्षा समान कहा है। संयमत की सौरभ से ही जिनशासन महकता है। संयम पालन में गोचरचर्या विशेष स्थान रखती है। गोचरचर्या अथवा आवश्यक कार्य हेतु जाते हुए साधु को किस-किस प्रकार के स्थानों का वर्जन करना चाहिए। स्थान का वर्जन भी संयम जीवन में महत्त्वपूर्ण है जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है-

साणं सूइयं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं।
संडिब्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवज्जए।।12।।

जिस स्थान पर कुत्ता बैठा हुआ हो अथवा श्वान मंडली ली हो, इसी प्रकार नवप्रसूता गाय, मदोनतमत्त बैल, मदोन्मत्त अश्व, मदोन्मत्त हाथी आदि खड़े हो जहाँ बालकों का क्रीडा स्थान हो, परस्पर वचन-युद्ध होता हो तथा खड्गादि से युद्ध होता हो तो ऐसे उपसर्ग अथवा उपद्रव युक्त स्थान को साधु दूर से ही छोड़ दे। कारण ऐसे स्थानों पर जाने से आत्म विराधना अथवा संयम-विराधना दोनों संभव है। जैसेकि श्वानादि पशु तो आत्म-विराधना करने में अपनी सामर्थ्य रखते ही है और जहाँ बालकों के खेलने के स्थान है, यदि उस स्थान पर ये जाया जाएगा तो वे बालक भी उपहासादि द्वारा भंडानादि द्वारा संयम-विराधना करने में विलम्ब नहीं करेंगे। अतएव उक्त दोनों विराधनाओं के भय से साधु उक्त स्थानों में गमन ही न करें।

आत्मीयता, अनुकम्पा के निमित्त साधु कभी विशिष्ट ज्ञानी साधक द्रव्य भाव, काल भाव का निर्णय ले सकते हैं। जैसे एवन्ता आदि राजकुमार व साथी गण खेल रहे थे एवं गौतम गणधर समीप से निकले। ऐसे विशिष्ट साधक द्रव्य क्षेत्र काल भाव को देख निणय ले सकते हैं।

श्रमणोपासकों को यह विवेक रखने की आवश्यकता है कि साधु भगवन्त की गोचरी के वक्त ऐसे श्वान मंडली, मदोन्मत अश्व इत्यादि को विवेक पूर्वक उस राह से हटा देवे जिससे कि साधु भगवन्तों को किसी तरह की बाधा उत्पन्न न हो।