रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-26 (Supatradaan Vivek-26)

विषय स्थान में जाने से होती संयम विराधना। सम स्थान में रमण से होती आत्म साधना।।

यहाँ विषय स्थान के कथन करने से सब प्रकार के विषय मार्गों का ग्रहण किया गया है। गमन करते हुए आत्म विराधना के संदर्भ में बताया कि साधु को विवेकपूर्वक गमनागमन आदि की क्रिया करें। दशवैकालिक सूत्र के 5वें अध्ययन की 4 गाथा में कहा-

ओवायं विसमं खाणुं, विज्जलं परिवज्जए। संकमेण गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कवे।।4।।

इस गाथा में मुख्यतया आत्म-विराधना के परिहार्थ कथन किया गया है जैसे कि-जिस मार्ग में विशेष खड्डादि हो तथा वहाँ विशेष ऊँचा-नीचा हो तथा उस मार्ग में कीले विशेष हो अथवा काष्ठादि रखे हुए हो, तो उन पर होकर न जाए क्योंकि इस प्रकार करने से आत्म-विराधना अथवा संयम विराधना होने की संभावना हो सकती है तथा सूत्र में ‘‘विज्जमाणे’’ पद दिया है इसके कथन करने का आशय है कि-यदि अन्य मार्ग विद्यमान न हो तो साधु यतना से उस मार्ग में भी गमन (कर सकता है)

ईर्या समिति के चार शुद्धि में एक शुद्धि बतायी है। मार्गशुद्धि-मुनि को यह सावधानी रखनी चाहिए कि वह कैसे मार्ग से चले और कैसे मार्ग से न चले। इस बात की सावधानी रखना मार्गशुद्धि है। जो मार्ग लोगों द्वारा अतिवाहित हो अर्थात् जिस मार्ग पर बहुत सारे लोग या वाहनादि पहले जा चुके हो। उस सुमार्ग पर चलना चाहिए। उन्मार्ग से गमन नहीं करना चाहिए। उन्मार्ग में गमन करने से षड्जीव निकाय की विराधना के साथ आत्मविराधना की भी संभावना रहती है। जिस मार्ग में खड्डे हो, जो उबड़-खाबड़ हो जिसमें ठूंठ आदि हो, जिसमें कीचड और कंटक आदि हो, जिसे पार करने के लिए काष्ठ या पत्थर की अस्थायी व्यवस्था हो ऐसे मार्ग से नहीं जाना चाहिए, क्योंकि यह स्व-पर विराधना का कारण है। यदि अन्य सुरक्षित मार्ग हो तो उससे यदि अन्य मार्ग न हो तो बहुत ही सावधानी के साथ ऐसे विषम स्थानों से विषम मार्ग से गमनागमन करना चाहिए।

साथ ही वह गमनागमन का मार्ग सूर्य की किरणों से आलोकित होना चाहिए क्योंकि सुपथ पर भी यदि रात्रि में विचरण किया जायेगा तो सम्पातिम जीवों की विराधना होगी, अतएव रात्रि में विचरण नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार मार्ग में यदि बीज या अन्य किसी प्रकार की वनस्पति हो, सचित्त मिट्टी हो, या सचित्त जल हो या बेइन्द्रियादि प्राणी हो तो उन्हें वर्जन करता हुआ गमन करे आगम में कहा-

पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे। वज्जंतो बीयहरियाइं, पाणे य दगमट्टियं।।3।।
ओवायं विसमं खाणुं, विज्जलं परिवज्जए। संकमेण ण गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे।।4।।

इस प्रकार मार्ग शुद्धि का ध्यान रखकर चलने से ईर्या समिति का सम्यक् पालन होता है।
वह श्रमणोपासक जिसे भी साधु भगवन्तों के साथ गोचरी-सुपात्रदान की अनमोल दलाली का लाभ मिले वह इस बात का ध्यान रखावें कि विषय-मार्ग मेंन जावे। ऐसे में साधु भगवन्त जीवों की विराधना से बचने हेतु अनुकम्पा से वापस लौट सकते हैं।