रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-28 (Supatradaan Vivek-28)

असंसतं पलोइज्जा, णाइदूरावलोयए। उप्फुल्लं ण विणिज्झाए, णिअट्टिज्ज अयंपिरो ।। 23 ।।

इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जब साधु गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाए, तब उसे वहाँ जाकर किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए अथवा संयमित होकर रहे, जब आहार के लिए गृहस्थ के घर जाए तब वह वहाँ आसक्त होकर किसी को न देखे, कारण कि इस प्रकार देखने से गृहस्थ को शंका हो सकती है। काम राग की प्राप्ति, लोकोपवाद आदि दोषों की प्राप्ति हो सकती है और न ही गृहस्थ के घर पदार्थों को जो दूर पड़े हुए हो, उनको देखे। क्योंकि ऐसा करने से गृहस्थ को चोर होने की शंका उत्पन्न हो सकती है और यदि उस घर से आहर नहीं मिला हो तो वह दीन वचन न बोलते हुए उस घर से बाहर आ जाए।

साधु भगवन्त गोचरी लेते समय बहुत विवेक रखते हैं। श्रमणोपासक भी पूर्ण विवेक रखे। साधु भगवन्त की कोई आहार संबंधी जिज्ञासा हो उसका सही उत्तर देवे। विवेकी श्रावक झूठ बोलकर आहार न बहरावें। इतना विवेकवान हो कि साधु भगवन्तों को अधिक पूछताछ की आवश्यकता नहीं पड़े।

श्रावक कोई पदार्थ रखे वह यथोचित्त तरीके से रखे जिससे साधु भगवन्तों को गवेषणा हेतु विशेष श्रम न करना पड़े और कभी विशेष श्रम की वजह से एवं अधिक पूछताछ की वजह से भी श्रमणों के प्रति श्रद्धा भाव में कमी आ जाती है और कभी-कभी वश श्रावक के मुँह से असत्य या भिन्न भाषा निकल जाती है, इसलिये श्रावक पहले ही विवेक ले लेवे।