रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-30 (Supatradaan Vivek-30)

थणगं पिज्जमाणी……………..पाण भोयणं।

बालक-बालिका को स्तन-पान (दुध पिलाती) हुई स्त्री उन रोते हुए बालक-बालिका को नीचे भूमि पर रखकर (बैठाकर) साधु को आहार-पानी नहीं देवे।

ऊपर की गाथा में जो आहार-पानी लेने का निषेध किया गया है उसका यह कारण है कि इस प्रकार करने से बालक के दुग्ध-पान की अंतराय लगती है और साथ ही साथ में साधु के अंतराय कर्म का भी बंध हो जाता है। जीवों की विराधना भी हो जाती है।

जब तब बाहर का खाना-पीना आरंभ नहीं होता तब तक उसका पूरा जीवन माता के दुग्ध पर अवलम्बित रहता है। माँ को उसे बार-बार दुग्ध पिलाकर संतुष्ट करना पड़ता है। दुग्ध पीते हुए बच्चे को यदि अचानक हटा दिया जाए तो उसकी भूख शांत नहीं होने से वह दुःख का अनुभव करता है अतः जब तक वह स्वयं दुध पीना न छोड़ दे तब तक उस माँ को दुध पिलाना चाहिए। कभी अचानक बच्चे को दुध पिलाते हुए घर में संत-सतियों का गोचरी-पानी के लिए प्रवेश हो जाये और माता बच्चे को हटाकर आहार आदि बहराने लगे तो साधु को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये। क्योंकि उस बच्चे को पीड़ा होती है। साधु के कारण अंतराय लगती है। अतः शास्त्रकारों ने ऐसा नियम बनाया है। जिससे ऐसी परिस्थिति में माता आहारादि के लिए बच्चे को हटाने में तत्पर न बने।

श्राविका विवेक ले सकती है कि घर का कोई सदस्य न हो तो साधु भगवन्त के साथ निजरार्थ-दलाली हेतु कोई गृहस्थ हो तो उसे आज्ञा दे सकती है। वह साधु भगवन्तों को आहार देकर गृह स्वामिनी एवं स्वयं को प्रतिलाभित कर सकता है। धारणा से यह सुना है कि आज्ञा मिलने पर साधु अचित्त जल को स्वयं भी ग्रहण कर सकते है, पर आहार तो गृहस्थ के बहराने से ही लेते हैं।

यहाँ यह बात स्पष्ट करना चाहते हैं कि दुध कोई सचित्त नहीं होता है। अनुकम्पा के निमित्त किसी भी प्राणी को दुःख न पहुँचे इस निमित्त साधु दुध पिलाती स्त्री से आहार ग्रहण नहीं करते।