रत्नसंघ

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सुपात्रदान विवेक-32 (Supatradaan Vivek-32)

साधु महाव्रतों से संयम रुपी यात्रा का निर्बाध पालन करने वाला होता है। पाँच महाव्रतों में चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य का पालन है। उस ब्रह्मचर्य को शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ तप बताया गया है। उस ब्रह्मचर्य रुपी अनमोल रत्न की सुरक्षा हेतु नववाड बताई गई है। नववाड के अन्तर्गत ही रुपक रुप में बताया गया है कि […]

सुपात्रदान विवेक-31 (Supatradaan Vivek-31)

जैन साधुओं का अहिंसा व्रत की पूर्ण प्रतिज्ञा वाला होता है अतः उसे अपनी प्रत्येक क्रियाओं में सर्वतोव्यापिनी सूक्ष्म दृष्टि से अहिंसक की महत्ती प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। जो सांसारिक उपाधियों को छोड़कर विरक्तमुनि हो गये हैं और जिन्होंने पूर्ण अहिंसा की विशाल प्रतिज्ञा ली है, उन्हें बड़ी सावधानी से साधारण से भी साधारण […]

सुपात्रदान विवेक-30 (Supatradaan Vivek-30)

थणगं पिज्जमाणी……………..पाण भोयणं। बालक-बालिका को स्तन-पान (दुध पिलाती) हुई स्त्री उन रोते हुए बालक-बालिका को नीचे भूमि पर रखकर (बैठाकर) साधु को आहार-पानी नहीं देवे। ऊपर की गाथा में जो आहार-पानी लेने का निषेध किया गया है उसका यह कारण है कि इस प्रकार करने से बालक के दुग्ध-पान की अंतराय लगती है और साथ […]

सुपात्रदान विवेक-29 (Supatradaan Vivek-29)

ऊपर आदि स्थानों पर रखी हुई वस्तुओं को यदि गृहस्थ नीचे लाकर बहरावे तो साधु उसे ग्रहण नहीं करते। क्योंकि जो वस्तु ऊपर से लाई गयी है हो सकता है वह सचित्त आदि पदार्थों के स्पर्श की हुई हो अथवा लाईट आदि जलाकर के अंधेरे स्थान से निकालकर लायी हुई हो या अन्य किसी दोष […]

सुपात्रदान विवेक-28 (Supatradaan Vivek-28)

असंसतं पलोइज्जा, णाइदूरावलोयए। उप्फुल्लं ण विणिज्झाए, णिअट्टिज्ज अयंपिरो ।। 23 ।। इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जब साधु गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाए, तब उसे वहाँ जाकर किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए अथवा संयमित होकर रहे, जब आहार के लिए गृहस्थ के घर जाए तब वह […]

सुपात्रदान विवेक-27 (Supatradaan Vivek-27)

मुनि जीवन में भी गमनागमन की प्रवृत्ति अपरिहार्य है, अतएव सर्वप्रथम शास्त्रकार यह निर्देश करते हैं कि मुमुक्षु को किस प्रकार चलना चाहिए और किस प्रकार चलता हुआ मुनि प्रवृत्ति करता हुआ भी पाप का भागी नहीं बनता है? गति संबंधी सावधानी, यतना पूर्वक उपयोग मय प्रवृत्ति को ईर्या समिति कहते हैं। शास्त्रकारों ने मुनि […]

सुपात्रदान विवेक-26 (Supatradaan Vivek-26)

विषय स्थान में जाने से होती संयम विराधना। सम स्थान में रमण से होती आत्म साधना।। यहाँ विषय स्थान के कथन करने से सब प्रकार के विषय मार्गों का ग्रहण किया गया है। गमन करते हुए आत्म विराधना के संदर्भ में बताया कि साधु को विवेकपूर्वक गमनागमन आदि की क्रिया करें। दशवैकालिक सूत्र के 5वें […]

सुपात्रदान विवेक-25 (Supatradaan Vivek-25)

भारतीय सम्यता में भी जैनों ने अहिंसा पर अधिक बल दिया है मानव एवं बड़े-बड़े जीव-जन्तुओं का ही नहीं, छोटे से छोटे प्राणियों के प्राणों की सुरक्षा करने का भी ध्यान रखा है। विश्व के सभी जीवों के साथ दया एवं अहिंसा का व्यवहार करने के कारण ही वे विश्वबन्धुत्व वात्सल्य की भावना को अपने […]

सुपात्रदान विवेक-24 (Supatradaan Vivek-24)

जिनशासन महान् है यहाँ प्रत्येक प्राणी को ज्ञान-दर्शनादि की अपेक्षा समान कहा है। संयमत की सौरभ से ही जिनशासन महकता है। संयम पालन में गोचरचर्या विशेष स्थान रखती है। गोचरचर्या अथवा आवश्यक कार्य हेतु जाते हुए साधु को किस-किस प्रकार के स्थानों का वर्जन करना चाहिए। स्थान का वर्जन भी संयम जीवन में महत्त्वपूर्ण है […]

सुपात्रदान विवेक-23 (Supatradaan Vivek-23)

रण्णो गिहवईणं……………दूरओ परिवज्जए।।6।। राजा, नगर सेठ, कोतवाल आदि के गुप्त वार्तालापदि करने के स्थानों को और दुःखदायी स्थानों को साधु दूर से ही छोड़ दे।उक्त स्थानों को साधु के बार-बार अथवा विशेष रुप से जाने पर निषेध है। शास्त्रकारों और भी कुछ स्थान गिनाते हैं, जैसे-प्रकाश, देखना, विशेष रुप से देखना, समान भू भाग, झरोखा, […]