रत्नसंघ

Menu Close
Menu Close

उपाध्यायप्रवर श्री मानचन्द्रजी म.सा.

अध्यात्मयोगी-युगमनीषी आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने अपने अन्तिम पाली चातुर्मास में प्रवचन सभा में कई बार जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए फरमाया कि मेरी ये दोनों भुजाएं मजबूत है। पं. रत्न श्री मानचन्द्रजी म.सा. व पं. रत्न श्री हीराचन््रदजी म.सा. आचार्य भगवन्त के आजू-बाजू विराजते थे। भगवन्त की भावना का प्रवचन-सभा में जनसमुदाय को भले ही हार्द समझ में नहीं आया किन्तु आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन पश्चात् श्रद्धाजंलि-सभा में भगवनत का स्व-लिखित पत्र का वाचन किया तो उसमें पं. रत्न श्री हीराचन्द्रजी म.सा. को आचार्य एवं पं. रत्न श्रभ् मानचन्द्रजी म.सा. को उपाध्याय पद प्रदान करने का उल्लेख श्रवण होते ही जन समुदाय ने हर्ष-हर्ष, जय-जय के जयनाद के साथ दोनों पण्डित प्रवरों की जय के गगनभेदी जयघोष कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। रत्नसंघ मे पहली बार उपाध्याय पद पर मनोनयन हुआ है इस कारण से जनभावना मे अच्छा उत्साह देखा गया। उपाध्यायप्रवर का वि.स. 1991 की माघ कृष्णा चतुर्थी को सूर्यनगरी के सुज्ञ श्रावकरत्न श्री अचलचन्दजी सेठिया के घर आंगन में दृढ़धर्मी सुश्राविका श्रीमती छोटाबाईजी की रत्नकुक्षि से जन्म हुआ। व्यावहारिक शिक्षण जोधपुर में हुआ और विद्यार्थी जीवन मे सरलता, सादगी, सहजता, सजगता, सहिष्णुता जैसे गुणानुरागी ने भोपालगढ़ में अध्यापक के रूप में सेवाएं दी। संकल्प-शक्ति के धनी श्री मानचन्द्रजी ने युवावस्था में संतोषवृत्ति के कारण अपने निमित्त से नए वस्त्र नहीं सिलवाने का मन-ही-मन नियम-सा कर लिया, भोजन में जो भी थाली में आ जाता दुबारा न लेते न मांगते। यौवनावस्था में घर-परिवार में विवाह विषयक चर्चा चलने लगी तो सांसारिक बन्धन में नहीं बंधने की भावना से आपने पं. रत्न श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा. से निवेदन किया कि मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत के प्रत्याख्यान करा दीजिए। पं. मुनि श्री ने मर्यादित समय के लिए नियम करवाया पर दृढ़ संकल्प के धनी ने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करने का मानस बना लिया। वि.स. 2020 की वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को जोधपुर में आचार्य श्री हस्ती के मुखारविन्द से मगन-मान की जोड़ी ने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की। नवदीक्षित संतरत्न ने आचार्य भगवन्त एवं नेश्राय गुरु पं. रत्न श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा. की चरण-सन्निधि में साध्वरचार के ज्ञान के साथ बोल-थोकड़ों और आगम शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान किया। सेवा और साधना के पर्याय उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म.सा. ने वि.स. 2034 से 2039 तक घोड़ों के चैक विराजित बाबाजी महाराज की अग्लानभाव से सेवा की उसकी प्रशंसा राजस्थान गौरव सेठ श्री मोहनमलजी चोरड़िया ने यह कहते की कि श्री मानमुनि चैथे आरे की बानगी है। उपाध्यायप्रवर ने वि.स. 2045 का चातुर्मास देश की राजधानी दिल्ली में किया। दिल्लीवासियों ने त्याग की साक्षात् मूर्ति द्वारा समाचारी पालन में दृढ़ता देखी तो उनहें लगा कि ये इतने दृढ़ संकल्पी हैं तो इनके गुरु कैसे हैं, दर्शन-वन्दन करने चाहिए। दिल्ली के श्रावकों ने सवाईमाधोपुर जाकर गुरु हस्ती के दर्शन क्या किए उन्हें तो मानों साक्षात् भगवान के दर्शन हो गए, ऐसा अनुभव हुआ। आचार्य भगवन्त के अन्तिम पाली चातुर्मास में दोनो पं. मुनियों ने भी गुरु आज्ञा से पाली चातुर्मास किया। पाली से निमाज की ओर विहार एवं निमाज पहुँचने पर आचार्य भगवन्त द्वारा संलेखना-संथारा एवं समाधिमरण में दोनों पण्डित प्रवरों की महनीय भूमिका रही। आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन पश्चात् आचार्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा. एवं उपाध्यायप्रवर श्री मानचंदजी म.सा. आदि ठाणा का प्रथम संयुक्त चातुर्मास जोधपुर हुआ। जोधपुर पश्चात् मदनगंज-किशनगढ़, जलगांव और धुले में दोनों महापुरूषों के संयुक्त वर्षावास हुए। परस्पर प्रेम-मैत्री सहयेाग केसाथ एकता-एकरूपता का जन-जन को सुखद अहसास संयुक्त चातुर्मासों की उपलब्धि कहें तो अतिशयोक्ति नहीं है। उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म.सा. आत्मार्थी संत हैं। धीर-वीर-गंभीर प्रकृति क धनी होने के साथ आपश्री प्रबल पुरूषार्थी भी हैं। वर्तमान में स्वास्थ्य में कमजोरी की वजह से विहार की स्थिति नहीं होने से संघनायक ने आपको जोधपुर विराजने का निर्देश किया है। उपाध्यायप्रवर जहाँ भी पधारते हैं वहाँ ज्ञान-ध्यान, त्याग-तप, साधना-आराधना और व्रत-प्रत्याख्यानों का ठाठ लग जाता है। सेवा और साधना के पर्याय उपाध्यायप्रवर का स्वास्थ्य समीचीन बना रहे, जन-जन की यही मुखरित होती रहती है।

जिनशासन गौरव परम श्रद्धेय आचार्यप्रवर पूज्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा.

आगमज्ञ, प्रवचन-प्रीााकर, व्यसन मुक्ति प्रबल प्रेरण, जिनशासन गौरव आचार्यगृप्रवर पूज्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा. रत्नवंश के अष्टम पट्टधर हैं, गुरु हस्ती के उत्तराधिकारी हैं। आपका जन्म जोधपुर जिलान्तर्गत पुण्यधरा पीपाड़शहर में वि.स. 1995 की चैत्र कृष्णा अष्टमी को संघ-प्रेमी सुश्रावक श्री मोतीलालजी गाँधी के घर-बाँगन में सुश्राविका श्रीमती मोहिनीदेवीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। छोटी बहिन के वियोग से संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास हाने तथा गुरु-सेवा मे समर्पण के बल पर आपकी वैराग्य भावना वि.स. 2020 की कार्तिक शुक्ला षष्ठी को साकार हुई। आचार्य श्री हस्ती के पीपाड़शहर चातुर्मास में पीपाड़शहर के मूल के मुमुक्षु बन्धु की दीक्षा उस चातुर्मास की महतवपूर्ण उपलब्धि रही।

गुरु चरण-सेवा मे धूप-छाँव की तरह लीन होकर श्रमण जीवन का अभ्यास किया। ज्ञानाराधन-तपाराधन-धर्माराधन में पुरूषार्थ करकरे प्रवचन में प्रवीणता प्राप्त करने वाले सुयोग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य ने 2020 से 2047 तक केवल मात्र एक चातुर्मास (नागौर) को छोड़कर शेष सभी चातुर्मास और विरण-विहार आराध्य गुरुवर्य के पावन सान्निध्य में सम्पन्न किये। गुरु-सेवा मे साम्प्रदायिक, सहिष्णुता, कथनी-करनी की एकरूपता, सिद्धान्तप्रियता और ज्ञान-क्रिया में पुरूषार्थ के बल पर उन्होंने सुयोग्य संतरत्न के रूप में अपनी पहचान बना ली।
गुरू-सेवा मे रहकर नवदीक्षित मुनि ने संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण और आगम शास्त्रों का तनस्पर्शी ज्ञान अर्जित किया। राजस्थान के मारवाड़, मेवाड़, मेरवाड़ा, गोडवाड़, पल्लीवाल, पोरवाल, हाड़ौती तथा सीमान्त क्षेत्र सिंवाची पट्टी के अलावा मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आन्धप्रदेश, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु जैसे प्रदेशों में गुरुवर्य की चरण-सन्निधि में रहकर अपने शिष्यरत्न को निखारा।

आचार्य भगवन्त के स्वर्गगमन के पश्चात् वि.स. 2048 की ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी को जोधपुर में चतुर्विध संघ ने चादर महोतसव का भव्य आयोजन कर रत्नवंश के अष्टम पट्टधर का हर्षोंल्लास के साथ बहुमान किया। चादर महोत्सव पर विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए गुरु हस्ती के पट्टधर गुरु हीरा ने कहा कि अभी जो चादर मुझे ओढ़ाई गई वह प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा और स्नेह का प्रतीक है। चादर का एक-एक तार एक दूसरे के अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, ऐसे ही संघ का हर सदस्य, संघ अनुशासन से जुडा रहे और किसी का किसी से अलगाव नहीं रहे। तत्कालीन संघाध्यक्ष श्री मोफतराजजी मुणोत ने अपेक्षा रखी कि आप रत्नसंघ का ही नहीं, सम्पूर्ण जैन समाज की अपेक्षाओं को साकार करेंगे।
आचार्य श्री हीरा ने वि.स. 2072 तक 17 संत और 71 सतियों को प्रव्रजित किया है, साथ ही साथ संघ में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की अभिवृद्धि के लिए राजस्थान ही नहीं, राजस्थान से बाहर महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, मध्यप्रदेश जैसे क्षेत्रों में विचरण-विहार की क्रमबद्धता और चातुर्मास करके तीन-तीन पीढ़ियों को संभालने का कठिन श्रम किया है वह अपने-आपमें बड़ी उपलब्धि है।

आचार्य श्री हीरा के शासन काल में अखिल भारतीय श्री जैन रत्न युवक परिषद् की स्थापना हुई तो श्राविका मण्डल का पुनर्गठन हुआ। शिक्षण बोर्ड की स्थापना, विद्वत परिषद् की पुनः सक्रियता, स्थान-स्थापन पर संस्कार केन्द्रों की स्थापना एवं संचालन महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। सामूहिक भोज में रात्रि भोजन त्याग, शीलव्रत के खंद, व्रती श्रावक बनाने का अभियान एवं धर्म स्थान में सामूहिक सामायिक साधना का शुभारम्भ संघ-समाज उन्नयन की दृष्टि से सार्थक प्रयास हैं।
आचार्य श्री हीरा आगमज्ञ हैं, प्रवचन-प्रभाकर हैं तो व्यसन मुक्ति के प्रबल प्रेरक हैं। स्वयं आचार धर्म का दृढ़ता पूर्वक पालन करने वाले स्थानकवासी समाज के सबसे ज्येष्ठ आचार्य चतुर्विध संघ की सम्यक् सारणा-वारणा-धारणा कर रहे हैं। आपके शासनकाल मे आचार्य श्री हस्ती जन्म शताब्दी वर्ष, आचार्य श्री हीरा-उपाध्याय श्रीमान की दीक्षा अर्द्धशती और आचार्यश्री का आचार्य पद रजत वर्ष को साधना-आराधना के रूप में चतुर्विध संघ द्वारा मनाया जा रहा है।

आचार्य श्री हीरा का व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व प्रभावी है। चतुर्विध संघ गुरु हस्ती पट्टधर गुरु हीरा से अपेक्षा रखता है कि आप संघ-समाज को निरन्तर आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करते रहें।

पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा.

इस युग के यशस्वी-मनस्वी-तपस्वी, प्रतिपल स्मरणीय परमाराध्य आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. का जन्म जोधपुर जिलान्तर्गत पुण्यधरा पीपाड़शहर में वि.स. 1967 की पौष शुक्ला चतुर्दशी को दृढ़धर्मी सुश्रावक श्री केवलचन्दजी बोहरा के घर-आँगन में माता रूपादेवीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक हस्ती जब अपनी माता के गर्भ में थे तब पिता श्री केवलचन्दजी बोहरा प्लेग रोग की चपेट में आकर चल बसे। मातुश्री श्री रूपादेवीजी संसार की क्षणभंगुरता और शरीर की अनित्यता से परिचित थी परन्तु बालक की परवरिश के कर्तव्यबोध के कारण श्राविकारत्न को दीक्षित होने से रूकना पड़ा।

माता के सद्-संस्कारों से परिपुष्ट बालक हस्ती के जीवन में सरलता, सहजता, सहिष्णुता जैसे विशिष्ट सद्गुण तो थे ही, संत-सतीवृन्द के सान्निध्य से विनय, विवेक, विनम्रता के साथ सेवाभावना के सद्गुण परिपुष्ट होने लगे। कुशाग्र बुद्धि के धनी बालक हस्ती में पौशाल में पढ़ते हुए करूणा, निडरता और न्यायप्रियता जैस सद्गुण विकसित हुए। माता रूपादेवी को लगा कि बालक कुछ समझदार हो गया है, माता ने दीक्षा लेने की भावना बालक हस्ती के समक्ष प्रकट की। माँ की बात सुनकर आत्मबल के धनी बालक हस्ती ने प्रत्युत्तर में कहा-आप ठीक सोच रही हैं। आप दीक्षा लें, मैं भी आपके साथ दीक्षित होऊंगा।

दूरदर्शी आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने वि.स. 1977 की माघ शुक्ला द्वितीया को अजमेर में जिन चार मुमुक्षुजनों को प्रव्रजित किया उनमें माता रूपादेवीजी और दस वर्षीय पुत्र हस्तीमलजी की दीक्षा अपने-आपमें अनुपम कीर्तिमान ही तो था।

नवदीक्षित बालमुनि प्रज्ञा व प्रतिभा से सम्पन्न तो थे ही, श्रमण-जीवन के अभ्यास के साथ अध्ययन में उनकी तल्लीनता प्रमाद परिहार्य का अनुपम आदर्श बन गया। इधर-उधर देखना-झांकना बालमुनि को कभी इष्ट नहीं रहा। अध्ययन के साथ गुरु-सेवा में सजग मुनिश्री की योग्यता, क्षमता, पात्रता, जान-समझकर जीवन निर्माण के शिल्पकार दूरदर्शी धर्माचार्य-धर्मगुरु पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने मात्र 15 वर्ष की लघुवय मे अपने सुशिष्य हस्ती को भावी संघनायक के रूप में मनोनीत कर दिया वह भी अपने-आपमें एक कीर्तिमान है। आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् चतुर्विध संघ ने लगभग 20 वर्ष की अवस्था में जोधपुर में चादर महोत्सव का आयोजन कर वि.स. 1887 की वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षया तृतीया) को आचार्य-पद पर सुशोभित किया, वह भी कीर्तिमान है।

ज्ञान-क्रिया के बेजोड़ संगम आचार्य श्री हस्ती आगम मर्मज्ञ, सिद्धान्तप्रिय, परम्परा के पोषक, सबके साथ मैत्री और संघ-ऐक्य के रक्षक तथा धर्म-संघ के हितचिन्तक महापुरूष रहे। विद्वत्ता में मात्र 23 वर्ष की वय मे उस दिव्य-दिवाकर ने कैकड़ी में शास्त्रार्थ कर विजयश्री का वरण किया परिणास्वरूप सकल जैन समाज में आप की यश-कीर्ति छा गई। कॉन्फ्रेंस की अवधारणा को साकार करने में आप श्री का विशेष योगदान रहा। अजमेर, सादड़ी, सोजत, भीनासर सम्मेलनों में गुरु हस्ती की भूमिका व भागीदारी का ही नहीं, स्थानकवासी परम्परा को प्रायः सभी मूर्धन्य संतों के दिल-दिमाग में पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. की सजगता, गंभीरता, विद्वता और सर्वप्रियता जैस गुण न केवल रेखांकित हुए अपितु ज्योतिर्धर जवाहराचार्य, पंजाबकेसरी युवाचार्य श्री काशीरामजी म.सा. तक का अभिमत रहा कि जब तक गुरु हस्ती किसी प्रस्ताव पर विचार-चिन्तन न दे तब तक वह प्रस्ताव मान्य नहीं होगा। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निर्मलता के साथ समाचारी का सम्यक् पालन करने वाले गुरु हस्ती को श्रमण संघ में सहमंत्री व उपाध्याय जैसे विशिष्ट पद तो प्रदान किए गए ही, पक्खी, प्रतिक्रमण, संवत्सरी, बालदीक्षा, प्रायश्चित्त, सचित्ताचित्त विचार जैसे विषयों पर गुरु हस्ती की छाप बनी रही। उन्हें अन्यान्य समितियों के साथ आगमोद्धारक समिति का सदस्य बनाया गया। तिथि निर्धारण समिति, शिक्षा-दीक्षा एवं विचरण-विहार में उस महापुरूष का योगदान अनूठा रहा।

दूरदर्शी आचार्य श्री हस्ती ने श्रमण संघ में सम्मिलित होने के पूर्व यह स्पष्ट कर दिया था कि जब तक संघ-ऐक्य और साधु-समाचारी का सम्यक् पालन होता रहेगा, श्रमण संघ में मेरी प्रतिबद्धता रहेगी। जब आपको यह लगा कि संयम-साधना में बाधा उपस्थित हो रही है तो श्रमण संघ से पृथक् होने का निर्णय कर लिया। सिद्धान्तप्रिय गुरु हस्ती को श्रमण संघ छोड़ने में असीम आत्मबल का परिचय देना पड़ा।

आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने 1990 मे पूज्य श्री आत्मारामजी म.सा. के साथ जोधपुर में चातुर्मास किया। परस्पर प्रेम-मैत्री- सहयोग की दृष्टि से वह चातुर्मास सफल रहा। जोधपुर में ही 2010 में छः प्रमुख संतों का ऐतिहासिक चातुर्मास गुरु हस्ती की सूझबूझ, उदारता, सरलता से सफल रहा। पूज्य श्री गणेशीलालजी म.सा., पूज्य श्री आनन्दऋषिजी म.सा., कवि श्री अमरमुनिजी म.सा., व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलालजी म.सा., पं. रत्न श्री समर्थमलजी म.सा., स्वामीजी श्री पूरणमलजी म.सा. जैसे विशिष्ट संत- मुनिराजों के साथ आप श्री का सिंहपोल जोधपुर का चातुर्मास अनूठा रहा।

आचार्य श्री हस्ती का जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी म.सा., पूज्य प्रवर्तक श्री पन्नालालजी म.सा., आचार्य श्री गणेशीलालजी म.सा., आचार्य श्री आत्मारामजी म.सा., आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म.सा., आचार्य श्री नानालालजी म.सा., उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.सा., आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म.सा., उपाध्याय कवि श्री अमरमुनिजी म.सा., उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी म.सा., मरूधर केसरी श्री मिश्रीमलजी म.सा., युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म.सा., आचार्य श्री जीतमलजी म.सा., बहुश्रुत श्री समर्थमलजी म.सा. सहित स्थानकवासी परम्परा के संतरत्नों के साथ तेरापंथी, मन्दिरमार्गी, गुजराती आदि-आदि परम्पराओं के प्रति मधुर सम्बन्ध बनाए रखना अपने आप में बहुत बड़ी विशेषता थीं।

आचार्य श्री हस्ती ने साहित्य-साधना में जैन धर्म का मौलिक इतिहास रचकर अनूठा आदर्श उपस्थित किया। गुरु हस्ती का व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व बड़ा प्रभावशाली रहा। उस महापुरूष ने कई स्थानों पर पशुबलि बन्द करवाई। सिंवाची पट्टी में 144 ग्रामों का मनमुटाव दूर कर प्रेम की गंगा बहाई, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के साथ जीवन पर्यन्त सामायिक-स्वाध्याय का देश भर में शंखनाद किया। 71 वर्ष तक निर्मल संयम-साधना का परिपालन करने वाले महापुरूष ने 61 वर्ष तक संघ का कुशलता पूर्वक संचालन किया और तेरह दिवसीय तप-संथारे के साथ वि.स. 2048 की प्रथम वैशाख शुक्ला अष्टमी को समत्वभावों के साथ समाधि-मरण का वरण कर मृत्यु को महा-महोत्सव बनाया, संलेखना-संथारे का ऐसा आदर्श 200 वर्षों के इतिहास में किसी आचार्य को प्राप्त नहीं हुआ।

पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा

जीवन निर्माण के शिल्पकार, दूरदर्शी धीर-वीर-गम्भीर पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. कुशलवंश परम्परा के षष्ठ पट्टधर हुए। उनका जन्म जोधपुर में वि.स. 1914 की कार्तिक शुक्ला पंचमी जिसे ज्ञान पंचमी, सौभाग्य पंचमी, श्रुत पंचमी जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता है, आपका जन्म सुश्रावक श्री भगवानदासजी छाजेड़ के घर-आँगन में माता पार्वतीजी की रत्नकुक्षि से हुआ। बालक शोभाचन्द्र बाल सुलभ चेष्टाओं से दूर रहकर शान्त व एकान्त स्थान पर चिन्तन-मनन में रत रहने लगे। पिताश्री ने 10 वर्ष की लघुवय में बालक को काम-धंधे में लगा दिया। पिताश्री की सोच थी कि धन-प्राप्ति के लालच में संसार के प्रति उदासीनता का भाव तिरोहित हो जाएगा, किन्तु परम प्रतापी आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के वैराग्यपूर्ण उपदेश सुनकर बालक शोभाचन्द्र आत्मिक गुणों की शोभा का पूर्ण चन्द्र बनने के लिए तत्पर हो गए। दृढ़ संकल्पी को अव्रत में रहना पीड़ादायक लगता है। बालक की पुनः पुनः दीक्षा की अनुमति को पिताश्री नकार नहीं सके। पारखी गुरु ने बालक शोभा की दृढ़ वैराग्य भावना का पहले से अंकन कर लिया था अतः वि.स. 1927 माघ शुक्ला पंचमी को जयपुर में पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के मुखारविन्द से उनकी दीक्षा सम्पन्न हुई।

पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. यद्यपि आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के सुशिष्य थे परन्तु गुरुभ्राता पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. के सहयोग से उनका ज्ञान-ध्यान पुष्ट हुआ। अपने गुरुभ्राता की नैत्र-ज्योति की मन्दता हो जाने के कारण से चाहे शास्त्रवाचन हो या व्याख्यान हो अथवा सेवा-कार्य हो, सब कार्य समर्पित भाव से पूर्ण करते थे, जिससे गुरुभ्राता को पूर्ण संतोष रहा। वि.स. 1972 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को पूज्य आचार्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् उस महापुरूष ने मारवाड़ की ओर विहार किया।

पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. की सेवा में 1927 से 1972 तक रहने वाले चरितनायक ने मात्र 11 स्वतन्त्र चातुर्मास किए। स्वामीजी श्री चन्दनमलजी म.सा. की सहमति से वि.स. 1972 की फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को अजमेर में चतुर्विध संघ ने चादर महोत्सव के माध्यम से आपश्री को आचार्य-पद प्रदान किया। जोधपुर में पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्दजी म.सा. का प्रभाव जैन समाज पर तो था ही, अन्य मतावलम्बियों पर भी उनका व्यापक प्रभाव रहा। जोधपुर के मुसद्दी ही नहीं, अनेक जज-वकील, डॉक्टर-इंजीनियर और राजकीय सेवा में कार्यरत बन्धु, दर्शन-वन्दन करने का लाभ लेते।

अजमेर में वि.स. 1977 की माघ शुक्ला द्वितीया को जिन चार मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ हुई उनमें पीपाड़ निवासी लघुवय के विरक्त श्री हस्तीमलजी बोहरा ने अपनी मातुश्री रूपादेवीजी के साथ पावन प्रव्रज्या अंगीकृत की, जीवन-निर्माण के शिल्पकार आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ने अपने सुशिष्य हस्ती मुनि को मात्र 15 वर्ष की अवस्था वाले संतरत्न को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दूरदर्शिता का परिचय दिया, वह अपने-आपमें अनूठा कीर्तिमान है।

पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. सरलता, सेवाभाविता, विनयशीलता, आगमज्ञता, वत्सलता जैसे गुणों से विभूषित थे तो व्यक्ति-व्यक्ति को परखने में उनकी कुशलता बेजोड़ थी। आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. का शासनकाल 1973-1983 तक केवल मात्र 11 वर्ष रहा परन्तु उस महापुरूष के 56 यशस्वी चातुर्मास इस परम्परा के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेंगे। आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. का जोधपुर में वि.स. 1983 की श्रावण कृष्णा अमावस्या को संथारा एवं समाधिपूर्वक मरण हुआ।

पूज्य आचार्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा.

कुशलवंश परम्परा के पंचम नायक पूज्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा. इस युग के श्रुत केवली, साम्प्रदायिक सहिष्णुता के सन्देशवाहक, वात्सल्य-मूर्ति शासन प्रभावक महापुरूश रहे। जोधपुर जिलान्तर्गत फलौदी के ओेसवंशीय श्रावकरत्न श्री प्रतापमलजी पुंगलिया के घर-आँगन में माता रम्भादेवीजी की रत्नकुक्षि से वि.स. 1897 की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को जन्मे बालक का नाम गुण सम्पन्न आकृति को ध्यान में रखकर “विनयचन्द्र” रखा गया। माता-पिता के स्वर्गवास पश्चात् बहन-बहनोई के सहयोग से पाली में व्यापार शुरू किया। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. की वैराग्यमय वाणी श्रवण करके आपके हृदय में संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता का बोध हुआ। वि.स. 1912 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के मुखारवन्द से अजमेर में श्री विनयचन्दजी और छोटे भाई श्री कस्तूरचन्दजी की दीक्षा हुई। थोड़े समय में धाराप्रवाह प्रवचन की प्रभावना से नवदीक्षित मुनिश्री की विनयशीलता, व्यवहार कुशलता और आगमज्ञता रेखांकित हुई। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. के स्वर्गगमन के पश्चात् वि.स. 1937 की ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी को अजेर में चतुर्विध संघ ने पूज्य-पद प्रदान किया। आगम-मर्मज्ञ मुनिश्री की धारणा शक्ति गजब की थी। स्मरण-शक्ति के कारण वर्षों पुरानी बातें उन्हें याद रहती थी। सतत स्वाध्याय के कारण आपकी प्रज्ञा इतनी निर्मल बन गई कि चर्म-चक्षुओं की मन्दता में कमी कोई संत गाथा इधर की उधर बोल जाता तो तुरन्त रोक कर यथोचित समाधान फरमाते। सबके प्रति मैत्री और उदारता की भावना के कारण श्वेताम्बर, दिगम्बर, तेरापंथी तक ही नहीं शैव-वैष्णव मतावलम्बी तक भी जिज्ञासु भाव से आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होते। पूज्य श्री का जयपुर स्थिरवास रहा। वृद्धावस्था में यदा-कदा अस्वस्थता रहती परन्तु सामान्यतः शरीर में समाधि बनी रही। वि.स. 1972 की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को दिन में 10 बजे के आसपास 75 वर्ष की अवस्था में पूज्य श्री ने समाधि पूर्वक नश्वर देह का त्याग किया।

पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा.

पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. का जन्म किशनगढ़ मे ओसवंशीय श्रावक श्री शम्भूमलजी सोनी के घर-आँगन में माता वंदनाजी की रत्नकुक्षि से हुआ। आठ वर्ष की लघुवय में माता-पिता के स्वर्गगमन से बालक के मन पर वज्रपात हुआ पर अजमेर में सत्संग-सेवा और संत-समागम के सुयोग से आपकी विरक्त भावना उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होती गई। श्रेष्ठ कार्यों में प्रायः विध्न आते ही है। दीक्षा रोकने के लिए कोर्ट-कचहरी तक बात गई, किन्तु न्यायाधीश ने आपकी दृढ़ता देखकर दीक्षा की अनुमति दे दी। वि.स. 1887 में माघ शुक्ला सप्तमी को अजमेर में आपकी दीक्षा हुई।

मुनिश्री की शरीर सम्पदा तो थी ही, कान्ति के साथ आत्मिक तेज भी था। गौर वर्ण, कद-काठी से लम्बे और सुडौल शरीर के धनी की मुख-मुद्रा पर गंभीरता और तेजस्विता स्पष्ट झलकती थी। आपकी विद्वत्ता, योग्यता, प्रतिभा देखकर चतुर्विध संघ ने वि.स. 1910 की माघ शुक्ला पंचमी को आचार्य-पद प्रदान किया।

आचार्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. का व्यक्तित्व-कृतित्व प्रभावी शरीर सम्पदा से सम्पन्न पूज्य श्री प्रत्युत्पन्नमति के साथ व्यंगात्मक भाषा को संयमित वचनों से समाधान देने में सिद्धहस्त थे। 26 वर्षों के आपके शासन में तेरह मुनियों ने संयम-पथ स्वीकार किया। वि.स. 1936 की वैशाख शुक्ला तृतीया को अजमेर में संलेखना-संथारे के साथ आपका समाधिमरण हुआ।

पूज्य आचार्य श्री हमीरमलजी म.सा.

परम्परा के तीसरे पट्टधर आचार्य पूज्य श्री हमीरमलजी म.सा. परम गुरुभक्त, विनय मूर्ति और विशिष्ट साधक महापुरूष थे। नागौर मूल के श्रावकरत्न श्री नगराजजी गाँधी के घर-आँगन में माता ज्ञानदेवीजी रत्नकुक्षि से 1852 में जन्म बालक हमीरमल को मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में पिता के वियेाग से संसार की असारता का भान हुआ। वि.स. 1863 की फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को बिरांटिया ग्राम में पूज्य श्रीरत्नचन्द्रजी म.सा. ने हमीरमलजी को दीक्षित किया। ज्ञान-क्रिया सम्पन्न मुनिश्री ने चार विगय का त्याग तो किया ही, दस द्रव्यों की मर्यादा भी कर ली। परीषह विजयी पूज्य श्री हमीरमलजी म.सा. प्रखर उपदेशक थे। विनयचन्द्र चोबीसी के रचयिता श्रावकरत्न श्री विनयचन्द्रजी कुंभट ने पूज्य श्री हमीरमलजी म.सा. के वचन रूपी बीज को विद्वत्समाज तक पहुँचाया। आचार्यश्री के लेखन-कला बड़ी सुन्दर थी। उनके लिखे ग्रन्थ आज भी अनमोल निधि के रूप में सुरक्षित है।

अपने 48 चातुर्मासों में से 39 चातुर्मास गुरुदेव की सेवा में किए और शेष 9 चातुर्मास स्वतन्त्र किए। वि.स. 1910 की कार्तिक कृष्णा (एकम्) प्रतिपदा को नागौर में आपका संथारा संलेखना सहित समाधि मरण हुआ।

पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा.

परम प्रतापी कीर्ति-निस्पृह क्रियोद्धारक आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का जन्म कुड़ ग्राम में सरावगी परिवार में हुआ। माता हीरादेवीजी ने स्वप्न में जलते हुए दीप को अपने मुँह में प्रवेश करते देखा तो पिताश्री लालचन्द्रजी ने गुण निष्पन्न नाम “रत्नचन्द्र” रखा। कुड़ जैसे छोटे से गाँव में जन्म लेने वाले प्रज्ञा व प्रतिभा सम्पन्न बालक को नागौर निवासी सेठ गंगारामजी ने वि.स. 1840 में दत्तक-पुत्र के रूप में गोद ले लिया। वि.स. 1847 में ज्ञान-क्रिया सम्पन्न आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा.. आदि ठाणा नागौर पधारे तो शुद्ध अन्तःकरण के धनी रत्नचन्द्रजी के मन में वैराग्यमय उपदेश श्रवण कर विरक्त भावना जागृत हुई। वैराग्यवान रत्नचन्द्रजी ने दीक्षा की ठान ली। माता की आज्ञा नहीं थी, फिर भी वि.स. 1848 की वैशाख शुल्का पंचमी को मण्डोर की नागादड़ी के पास दीक्षा ग्रहण कर नवदीक्षित मुनि को “चिन्तामणि रत्न” मिलने की अपार खुशी हुई।

नवदीक्षित मुनि का मेवाड़ में तीन वर्ष विचरण रहा। बुद्धि की तीव्रता और स्मरण शक्ति की प्रखरता से उन्होंने व्याकरण ज्ञान के साथ आगम-साहत्य का अध्ययन करके विद्वत्ता का वरण किया। पाली चातुर्मास में माता को अपने पुत्र का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो राजा से बिना आज्ञा दीक्षित हुए पुत्र को पुनः वापस लाने हेतु प्रार्थना की। राज्य अधिकारियों को ही नहीं, स्वयं मातुश्री को प्रतिबोधित कर मुनिश्री ने अपने सारगर्भित वक्तत्व्य में संयम जीवन की महत्ता बताई तो माता को गलती का अहसास तो हुआ ही, नागौर चातुर्मास करने की पुरजोर विनति भी रखी।

पूज्य आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा. के स्वर्गवास पश्चात् पूज्य-पद के लिए विचार हुआ। सम्प्रदाय के प्रबुद्धजनों में दो नामों पर विचार हुआ। पूज्य श्री दुर्गादासजी म.सा. और पूज्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा.। स्वयं रत्नचन्द्रजी म.सा. अनुभवी और वयोवृद्ध श्री दुर्गादासजी म.सा. को पूज्य-पद स्वीकार करने का पुनः पुनः आग्रह कर रहे थे तो पूज्य श्री दुर्गादासजी म.सा. की भावना सामने आ रही थी कि पूज्य-पद के लिए प्रतिभा सम्पन्न और शासन दीपाने में सक्षम रत्नचन्द्रजी महाराज पूज्य-पद संभाले। वे एक-दूसरे को पूज्य कहते पर पद ग्रहण करने से परहेज करते रहे। चोबीस वर्ष तक दोनों महापुरूषों में से किसी ने आचार्य पद ग्रहण नहीं किया। उदारता के साथ गुण ग्राहकता का ऐसा आदर्श अन्यत्र देखने-सुनने को नहीं मिला।

स्थविर श्री दुर्गादासजी म.सा. का 76 वर्ष की आयु में वि.स. 1882 के जोधपुर चातुर्मास में अष्ट प्रहर के चौविहार संथारे के साथ स्वर्गगमन हुआ। चतुविध संघ ने वि.स. 1882 की मार्गशीर्ष शुकला त्रयोदशी को आचार्य-पद प्रदान किया, शासन प्रभावना में कीर्तिमान कायम करने वाले, क्रियोद्धारक, कीर्ति-निस्पृह परम प्रतापी पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का 18 वर्ष तक का शासनकाल का ही प्रभाव है कि कुशलवंश परम्परा रत्नसंघ के नाम से विख्यात हुई। आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. का शासन 1902 की ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी तक रहा।

आचार्य पूज्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा.

कुशलवंश परम्परा के प्रथम आचार्य पूज्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा. माहेश्वरी जाति के सम्पन्न सद्गृहस्थ थे। अपनी मातुश्री के स्वर्गगमन पश्चात् पिता-पुत्र (श्री अखेराजजी व श्री गुमानचन्द्रजी) परम्परागत रीति के अनुसार अस्थियाँ विसर्जित करने पुष्कर गए। लौटते समय मेड़ता नगर में जहाँ उस समय उत्कृष्ट चारित्र के धनी पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. विराज रहे थे, दर्शन-वन्दन के साथ पिता-पुत्र में भक्ति भावना का ऐसा संचरण हुआ कि उन्हें संसार के प्रति उदासीनता हो गई। वि.स. 1818 की मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को पिता-पुत्र दोनों ने पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. के मुखारविन्द से पावन प्रव्रज्या अंगीकार कर ली।

पूज्य आचार्य श्री गुमाचन्दजी म.सा. ने अपने लगभग बीस वर्ष की अवस्था वाले शिष्यरत्न श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. के सहयोग से वि.स. 1854 में भोपालगढ़ आषाढ़ कृष्णा द्वितीया को 14 संतों के साथ 21 बोलों की मर्यादा कर क्रियोद्धार किया, वह कुशलवंश परम्परा की विशेष उपलब्धि है। पूज्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. की यश-कीर्ति के प्रभाव से कुशलवंश परम्परा रत्नवंश के नाम से विख्यात है। उत्कृष्ट क्रियापात्र पूज्य आचार्य श्री गुमानचन्द्रजी म.सा. का वि.स. 1818 से 1858 तक 40 वर्ष पर्यन्त शासन प्रभावना का काल इस परम्परा की प्रमुख विशेषता है।

पूज्य श्री कुशलचन्दजी म.सा.

परम्परा के मूल पुरूष पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. परम प्रतापी, क्षमामूर्ति पूज्य आचार्य श्री भूधरजी म.सा. के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे। उन्होंने वि.सं. 1794 की फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को दीक्षा अंगीकार की। अपने 45 वर्ष की निर्मल संयम-साधना में शिष्य परिवार होते हुए भी उस महापुरूष ने आचार्य पद ग्रहण नहीं किया और गुरुभ्राता पूज्य श्री जयमलजी म.सा. के साथ रहकर परस्पर प्रेम का अनूठा आदर्श उपस्थित किया। निर्मल संयम साधक, दृढ़ प्रतिज्ञ परम्परा के मूलपुरूष ने परम्परा का बीजारोपण किया। गुरुभ्राता के प्रति घनिष्ठ प्रेम का पाठ इस परम्परा का आदर्श रहा। अपने आराध्य गुरुवर्य पूज्य आचार्य श्री भूधरजी म.सा. के स्वर्गगमन पश्चात् गुरुभ्राता पूज्य श्री जयमलजी म.सा. के साथ परम्परा के मूलपुरूष पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. ने भी प्रतिज्ञा ले ली कि अब धरती पर लेटकर निद्रा नहीं लूंगा। पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी म.सा. ने 45 यशस्वी चातुर्मास करके शासन की महती प्रभावना की।